दशरथ की कूटनीति
रामायण की के दो प्रमुख स्त्री पात्र है कैकयी और उसकी दासी मंथरा , रामभक्त इन दोनों पात्रो को रामायण की खलनायिका मानते हैं । तुलसी दास जैसे भक्त तो इन से चिढ के यंहा तक लिख गए हैं ‘ बिधुहुँ न नारि हृदय गति जानी, सकल कपट अघ अवगुन खानी” ।
राम के कष्टो की जिम्मेदार इन्ही दोनों को माना जाता है , समाज में इन दोनों के प्रति घृणा इतनी है की कोई भी स्त्री अपनी बेटी का नाम ‘ कैकयी’ या ‘ मंथरा’ नहीं रखते ।
मंथरा को और बुरी प्रवृति का दिखाने के लिए उसको बूढ़ी, काली, कुबड़ी और कानी तक का चित्रण कर दिया जाता है । अब यह सोचने की बात है की एक रानी ऐसी कुरूप स्त्री को दासी क्यों बनाएगी?क्या उसे सुन्दर दासियाँ नहीं मिलती थीं? पर चुकी दास कर्म केवल शुद्र का ही कर्म है अत: मंथरा शुद्र स्त्री थी तो उसको कुरूप दिखाना ही था ।
राम के वनवास का सारा दोष कैकयी के सर मढ़ दशरथ को सीधा और सच्चा दिखा दिया जाता है , पर वास्तव में क्या दशरथ सीधे और सच्चे ही थे?नहीं, बल्कि यदि देखा जाये तो रामायण की सभी समस्याओं की जड़ वही थे ।
दरसल दशरथ वंश पितृसत्तात्मक था जबकि कैकयी वंश मातृसत्तात्मक की थी । दशरथ की दो अन्य रानियां कौशल्या और सुमित्रा भी पितृसत्तात्मक कुल की थी और आर्य संस्कृति के निकट थीं । कौशल्या , कौशल नरेस ‘ भानुमान’ और सुमित्रा मगधराज की पुत्री थी जबकि इसके उलट कैकयी के पिता अनाव नरेश अश्वपति ने कैकयी का विवाह दशरथ के साथ इसी शर्त पर किया था की भविष्य में दशरथ आर्य संस्कृति परम्परा त्याग कैकयी के पुत्र को ही राज्य का उत्तराधिकारी बनाएंगे। इसके लिए दशरथ ने वचन भी दे दिया था ( वाल्मीकि रामायण, अयोध्या काण्ड,सर्ग 107, श्लोक 3) में राम भरत को उस वचन की याद भी दिलाते हैं ।
दशरथ की पहले की दोनों रानियां निसन्तान थीं और यह सोच के की अब कैकयी से ही पुत्र प्राप्त हो सकता है तो उन्होंने कैकयी के पिता को यह वचन दे दिया की कैकयी का पुत्र ही राजा बनेगा , तब जाके कैकयी के पिता दशरथ से अपनी पुत्री का विवाह करने पर राजी हुए ।
बाद में बड़ी रानी यानि की कौशल्या के पुत्र प्राप्त हो गया जिसका नाम राम रखा गया , दशरथ का राम से अधिक प्रेम था , आर्य निति के अनुसार ज्येष्ठ पुत्र ही राज्य का उत्तरा अधिकारी होता है इस लिए दशरथ इस रीती को तोड़ने में हिचकिचाते थे । इसके के आलावा कैकयी पक्ष की शक्ति और भरत के संभावित विद्रोह से भी आशंकित थे । इसलिए राम के राजा बनने का प्रश्न उन्होंने तब उठाया था जब भरत अपने ननिहाल गए थे ।
इसके लिए उन्होंने वशिष्ठ आदि मंत्रियो से मिल के गुप्त योजना भी बनाई , राम के राजतिलक में आनव नरेश, कैकयी और भरत को न बुलाना दशरथ की कूटनीति थी ।
– केशव
मैं मिश्र जी से यहीं तक सहमत हेँ कि आस्था और इतिहास दो अलग विषय हैं। यह इस बात से सिद्ध होता है कि जहाँ वाल्मीकि जी, यथार्थतः, राम को राजा कह कर संबोधित करते हैं, वहीं तुलसी दास भक्ती भाव में उन्हे भगवान कहते नहीं अघाते हैं।
आस्था अपनी जगह है पर इतिहास जानना भी जरूरी है, और केशव जी की व्याख्या शोध का विषय है।
आपके लेख की अनेक बातें विचारणीय हैं. यह सत्य है कि दशरथ ने कैकेयी के पिता को यह वचन दिया था कि कैकेयी का पुत्र ही सिंहासन पर बैठेगा. लेकिन उनसे ज्येष्ठ तथा सर्वथा योग्य होने के कारण राम इसके वास्तविक अधिकारी थे और सभी श्री राम को ही राजा के रूप में देखना चाहते थे. किसी अप्रिय स्थिति से बचने के लिए ही सम्भवतः दशरथ ने भरत को ननिहाल भेजा था और कैकेयी को इस सारी योजना से अलग रखा था.
आप का नास्तिक और आस्तिक होना यह आप का निजी मामला है केशव जी, पर रामायण या और कोई ग्रंथ अपनी गरिमा पर सदियों से कायम हैं जिनकों उन्हीं के रूप में देखता हुआ जनमानस उसकी अहमियत, विश्वाश, श्रद्धा और हकीकत पर चल रहा है | किसी भी विषय वस्तु को उसके काल-समय परिस्थिति और घटना के नजरिये से देखना ही सही होता है अन्यथा आज भी विसंगतियों की कमी नहीं है…….