आत्मकथा

आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 21)

सूरज भाईसाहब का देहावसान

चौथी बार मुझे फिर मई 2003 में तब श्मशान घाट जाना पड़ा था, जब हमारे सूरज भाईसाहब का देहावसान हो गया था। वे बहुत दिनों से बीमार चल रहे थे। उनके गुर्दे का प्रत्यारोपण हुए पाँच वर्ष हो गये थे और छठा वर्ष चल रहा था। जो गुर्दे सीधे रिश्तेदारों से नहीं लिये जाते उनका 5 वर्ष से अधिक चलना बहुत कठिन होता है। सब लोग यह जानते थे, फिर भी आशा कर रहे थे कि जब तक चल जायें, तब तक चलने दो। दोबारा गुर्दा प्रत्यारोपण का प्रश्न ही नहीं था।

एक बार सूरज भाईसाहब की हालत बहुत बिगड़ गयी थी। उनको जरीब चौकी के पास एक अस्पताल में भरती कराना पड़ा। उनकी साँस बहुत तेजी से चलने लगी थी, जिससे लगता था कि अब गये, तब गये। परन्तु एक माह वहाँ रहने के बाद वे लगभग काफी स्वस्थ हो गये और अपने घर वापस आ गये। सबने इसे चमत्कार और ईश्वर की कृपा माना। लेकिन इसके लगभग 2-3 माह बाद अचानक उनका देहान्त हो गया। मैं उस समय आगरा में था। खबर पाते ही बहुत से रिश्तेदार आगरा से और इधर-उधर से कानपुर पहुँच गये। वहीं मेरी उपस्थिति में ही उनका दाह संस्कार हुआ। उनके अन्त्येष्टि संस्कार के लिए मुझे चौथी बार श्मशान घाट जाना पड़ा।

चार माह में लगातार चार बार श्मशान घाट जाने का मेरे मन पर बहुत बुरा असर पड़ा। इन चारों ही व्यक्तियों का मेरे ऊपर बहुत स्नेह था। मैं बहुत खिन्न रहने लगा था। काफी दिनों बाद धीरे-धीरे मैं सामान्य हुआ।

गौतम ब्रदर्स का कार्य

कानपुर में एक प्रकाशक हैं गौतम ब्रदर्स। उन्होंने एक बार ‘अमर उजाला’ में विज्ञापन दिया कि उन्हें विभिन्न विषयों पर बच्चों के लिए पुस्तकें लिखने वाले लेखकों की आवश्यकता है। इस विज्ञापन को पढ़कर मैंने फोन द्वारा सम्पर्क किया, तो उन्होंने मुझे अपने कार्यालय में मिलने को बुलाया। उनका कार्यालय कोतवाली के पास बड़े चौराहे से मूलगंज जाने वाली मुख्य सड़क मेस्टन रोड पर है। एक दिन कार्यालय समय के बाद मैं उनसे मिलने गया। मैं अपनी कुछ पुस्तकें भी उनको दिखाने ले गया था। उन्होंने मुझसे हिन्दी और अंग्रेजी में बच्चों के लिए 5 भागों में कम्प्यूटर पर पुस्तकें लिखने के लिए कहा, जो मैंने स्वीकार कर लिया। पारिश्रमिक भी पेज के अनुसार तय हो गया। उन्होंने मुझे कई अन्य प्रकाशकों की पुस्तकें नमूने के तौर पर दीं और कहा कि उन्हें ऐसी ही पुस्तकें चाहिए। मैंने उनसे कहा कि मैं इनसे भी अच्छी पुस्तकें लिख दूँगा। उन्होंने मुझसे पहला भाग लिखकर दिखाने के लिए कहा।

घर आकर मैंने कार्य प्रारम्भ कर दिया और शीघ्र ही पहला भाग तैयार कर लिया। उसकी एक प्रति छापकर मैं गौतम जी को दिखाने ले गया। उन्होंने दो दिन बाद आने के लिए कहा कि देखकर बतायेंगे। दो दिन बाद मैं गया, तो मैंने देखा कि उन्होंने पुस्तक में काफी संशोधन कर दिये हैं और कई जगह तो वाक्य के वाक्य काट दिये हैं। मुझे बहुत आश्चर्य हुआ, लेकिन मैंने सोचा कि कोई बात नहीं, पुस्तक तो इनको ही बेचनी है। उन्होंने मुझे कुछ सुझाव भी दिये।

अगली बार मैं उनके बताये संशोधन कर ले गया और उनके सुझाव के अनुसार पुस्तक की रूपरेखा भी सुधार दी। तब तक मैंने 3 भाग पूरे कर लिये थे। मैं उन तीनों को छापकर ले गया। उन्होंने फिर दो दिन बाद आने को कहा। जब मैं गया, तो देखा कि उनमें उन्होंने फिर बहुत काट-छाँट की है और फिर भी संतुष्ट नहीं हैं। मुझे बहुत क्रोध आया। तब तक किसी प्रकाशक ने मेरी किसी पुस्तक में एकाध शब्दों की वर्तनी सुधारने के अलावा कोई संशोधन करने की हिम्मत नहीं की थी और ये सज्जन मेरी पुस्तकों के वाक्य के वाक्य और पैराग्राफ के पैराग्राफ काटे दे रहे थे और फिर भी संतुष्ट नहीं थे।

मैं समझ गया कि इनका इरादा पुस्तक छापने का नहीं है और केवल मेरा समय नष्ट कर रहे हैं। इसलिए वहाँ तो मैं कह आया कि फिर से आपकी इच्छा के अनुसार पुस्तकों को सुधार दूँगा। लेकिन घर आते ही मैंने श्रीमती जी से उनको फोन करा दिया कि अभी यह काम नहीं कर पायेंगे, क्योंकि कुछ दूसरी पुस्तकों का काम मिल गया है। वे समझ गये और फोन पर कहा कि नमूने की पुस्तकों को लौटा दीजिए। मैंने कहला दिया कि आदमी भेज दो, ले जाएगा। दूसरे दिन उनका आदमी घर आया, तो मैंने नमूने की सारी पुस्तकें उसको पकड़ा दीं।

जिन पुस्तकों को गौतम ब्रदर्स ने छापने लायक नहीं समझा था, बाद में वे ही पुस्तकें श्रीमती जी के नाम से आगरा के एक प्रकाशन मै. विनोद पुस्तक मन्दिर ने छाप दीं और काफी सफल रहीं। बाद में उन्हीं पुस्तकों को कुछ सुधारों के साथ मेरे नाम से मेरठ के मै. विद्या प्रकाशन ने भी छापा और उनके कई संस्करण निकले।

एक बार दशहरे पर जब मैं आगरा गया, तो मैंने मै. विनोद पुस्तक मन्दिर द्वारा छापी गयी अपनी कम्प्यूटर की पुस्तकों का एक सेट (कक्षा 1 से कक्षा 5 तक का) अपने भान्जे (छोटी बहिन सुनीता के सुपुत्र) चि. हार्दिक अग्रवाल (चुनमुन) को दिया, जो उस समय कक्षा 3 में पढ़ता था। उसके बाद फिर जब मैं दिवाली पर आगरा गया और भाई दूज वाले दिन चुनमुन से भेंट हुई, तो मिलते ही वह अपने-आप कहने लगा- ‘मामाजी, पहले मेरी समझ में कम्प्यूटर नहीं आता था, पर आपकी किताब पढ़कर सब समझ में आ गया।’ यह सुनकर मुझे कितनी प्रसन्नता हुई शब्दों में नहीं बता सकता। पहली बार मुझे अपने लक्ष्य समूह, जिसे अंग्रेजी में टार्गेट ग्रुप कहते हैं, के एक पाठक से फीडबैक मिला, वह भी बिना माँगे। मैं यही तो जानना चाहता था कि मेरी पुस्तकें बच्चों की समझ में कितना आती हैं।

पहाड़िया जी का कार्य

उन्हीं दिनों एक स्वयंसेवक सज्जन से मेरा परिचय हुआ। विश्व संवाद केन्द्र के प्रभारी मा. राजेन्द्र सक्सेना ने उनसे मेरा परिचय कराया था। वे थे श्री प्यारेलाल पहाड़िया, जो राष्ट्रकवि स्व. श्री मैथिली शरण गुप्त के रिश्ते में समधी लगते थे। वे एक प्रकाशन चलाते थे ‘श्याम प्रकाशन’ के नाम से और लगभग 300 पुस्तकें उन्होंने छापी थीं। जब उन्हें पता चला कि मैं कम्प्यूटर पर पुस्तकें लिखता हूँ, तो वे चाहते थे कि मैं कक्षा 6 से 8 तक की पुस्तकें कम्प्यूटर पर हिन्दी में उनके लिए लिख दूँ। मैंने स्वीकार कर लिया, लेकिन कहा कि मैं बिना पारिश्रमिक लिये नहीं लिखता, इसलिए अधिक नहीं तो उतना पारिश्रमिक जरूर देना होगा, जितना मुझे दूसरे प्रकाशकों से मिलता है। वे इसके लिए तैयार नहीं हुए।

मैंने उनसे पूछा कि आपने जो 300 पुस्तकें छापी हैं, उनके लेखकों को क्या पारिश्रमिक दिया है, तो उन्होंने कहा- ‘कुछ नहीं।’ मुझे बड़ा गुस्सा आया। वास्तव में वे अपने सम्बंधों का फायदा उठाकर लेखकों से पुस्तकें लिखवा लेते थे और छप जाने पर उनको पुस्तक की 10-20 प्रतियाँ दे देते थे और इसके अलावा कुछ नहीं देते थे। वे स्वयं पुस्तकों को बेचकर लाखों रुपये कमाते थे। यह स्पष्ट रूप से लेखकों का शोषण था। मैं इसे कभी प्रोत्साहित नहीं कर सकता था। इसलिए मैंने उनको स्पष्ट बता दिया कि मैं आपके लिए पुस्तकें नहीं लिख सकता। मैंने राजेन्द्र जी सक्सेना से भी कह दिया कि ये लेखकों का शोषण करते हैं, इसलिए इनके लिए पुस्तकें लिखने के लिए मुझसे मत कहिए। राजेन्द्र जी भी मुझसे सहमत थे। इसलिए वह मामला वहीं खत्म हो गया।

कांग्रेसियों की गुंडागिर्दी का इलाज

कानपुर में फूलबाग नाम का एक ऐतिहासिक मैदान है, जो माल रोड के किनारे है। वहाँ संघ की एक शाखा नियमित लगती है। एक दिन जब शाखा में केवल 2-3 लोग थे, कुछ युवकों ने आकर उनके साथ मारपीट की और शाखा लगाने का विरोध किया। पता चला कि वे कांग्रेस के कार्यकर्ता किंवा गुंडे थे। जब इस मारपीट की खबर अन्य संघ कार्यकर्तााओं तक पहुँची, तो सबमें रोष फैल गया। संघ के तत्कालीन सर कार्यवाह मा. मोहन जी भागवत को इसका पता चला तो उन्होंने स्वयंसेवकों को ही डाँटा कि शाखा में इतनी कम संख्या क्यों थी? अगर शाखा में 10-12 लोग रहते, तो किसी गुंडे की हिम्मत नहीं हो सकती थी कि शाखा की ओर आँख उठाकर भी देख ले। फिर उन्होंने यह भी कहा कि आपको दंड चलाने की शिक्षा किसलिए दी गयी है? यदि इसका उपयोग गुंडों के ऊपर भी नहीं कर सकते, तो इसका क्या लाभ? अगले दिन उसी शाखा में भारी संख्या में स्थानीय स्वयंसेवक पहुँच गये और प्रतीक्षा करने लगे कि कोई गुंडा नजर आये तो उसको सबक सिखाया जाये। लेकिन कोई नहीं आया। इसलिए सब लोग चले गये। बात आयी गयी हो गयी।

इसके कुछ दिनों बाद भागवत जी का प्रवास कानपुर में हुआ। उनका एक कार्यक्रम प्रातः 6 बजे कानपुर से प्रख्यात विद्यालय बी.एन.एस.डी. शिक्षा निकेतन के मैदान में रखा गया। उस अवसर पर कांग्रेसियों ने भागवत जी को काले झंडे दिखाने की योजना बनायी, क्योंकि उन्होंने स्वयंसेवकों को ललकारा था और गुंडों को सबक सिखाने की आज्ञा दी थी। कांग्रेसियों की योजना का पता चलते ही स्वयंसेवकों ने भी उनका इलाज करने की योजना बना ली। प्रातः 6 बजे से कुछ पहले जैसे ही भागवत जी उस मैदान के पास पहुँचे, वैसे ही इधर-उधर खड़े कांग्रेसियों ने काले झंडे निकाल लिये और उनके खिलाफ नारेबाजी की। यह देखते ही पहले से तैयार स्वयंसेवकों ने उनको दौड़ा-दौड़ा कर पीटा। कांग्रेसी वहाँ से जानबचाकर भाग गये। इसके बाद भागवत जी का कार्यक्रम हुआ।

इस घटना के बाद जब तक मैं कानपुर में रहा, तब तक और शायद अभी तक किसी कांग्रेसी या अन्य गुंडे की हिम्मत नहीं हुई कि स्वयंसेवकों के साथ मारपीट करे या शाखा लगाने का विरोध करे। ‘शठे शाठ्यम् समाचरेत्’ मंत्र से ही उनका इलाज हुआ। अन्य कोई भाषा वे नहीं समझते।

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

7 thoughts on “आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 21)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई, सूरज भाई का पड़ा ,यह गुर्दे की बीमारी भी बहुत कष्टदाई है , मैंने अपने दोस्त बहादर के छोटे भाई को जाते देखा है ,उस की उम्र उस वक्त ४५ वर्ष ही थी. उस का बीपी इतना हाई हो गिया था कि किडनी ही डैमेज हो गई और साथ ही जबरदस्त स्ट्रोक हो गिया था . शमशान भूमि जाने से मुझे तो डर ही लगता है , बहुत दफा किरिया कर्म के अवसर पर गिया हूँ लेकिन मन उदास हो जाता है .
    जो परकाशक लेखकों का शोषण करते हैं ,सुना तो बहुत था लेकिन आप से सुन कर यकीन हो गिया और जिन लेखकों को पड़ा था ,अब उन की याद आने लगी है कि वोह ठीक ही कहते थे . मेरे एक कवी दोस्त हैं ,अब तो मिले देर हो गई ,एक दफा बोलते थे कि उन को अपनी कवितायेँ छपवाने के लिए पैसे देने पड़ते है और बाद में चालिस पचास किताबें हाथ में पकड़ा देते हैं .

    • विजय कुमार सिंघल

      ऐसा बहत से कवियों के साथ होता है. आज भी ऐसे प्रकाशक हैं जो लेखकों से छपाई का आधा खर्च मांगते हैं परन्तु वास्तव में पूरा खर्च ले लेते हैं. किताब बिके या न बिके उनकी बला से.

  • महातम मिश्र

    माननीय विजय कुमार सिंघल जी, आप की आत्मकथा के कुछ भागों को पढ़ा बहुत बढ़िया लिखा है आप ने, स्मशान बैराग तो आता ही है और प्रकाशक की पराकाष्ठा पर क्या कहना मर्जी उनकी, आयी तो छापा नहीं तो ठुकरा दिया ……

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार, महातम जी !

  • Man Mohan Kumar Arya

    लेख को दत्त चित्त होकर पढ़ा। गीता में शरीर को वस्त्र की उपमा देकर बताया गया है कि जीर्ण वस्त्रो की भांति जीवात्मा इन्हे उतार कर नया शर्रेर धारण करती है। यही बात सभी मरने वाले मनुष्यों पर लागू होती है। शमशान जाने पर श्मशान वैराग्य होता है जो कि ज्ञान वैराग्य की निचली सीडी है। महर्षि दयानंद जी को ज्ञान वैराग्य हुआ था और वह मृत्यु पर्यन्त रहा। मृत्यु को अभिनिवेश क्लेश कहा गया है जो मरने वाले और उसके सभी सगे सम्बन्धियों को होता है। मैं कुछ कुछ सुभाष भाई साहेब की मृत्यु पर आपकी स्थिति को समझ सकता हूँ। प्रकाशकों की शोषण की आचार प्रणाली को भी समझने का प्रयास किया। हमारे एक मित्र लेखक ने बताया था कि उसकी पुस्तक पर प्रकाशक ने किसी अन्य व्यक्ति का नाम बतौर लेखक दे दिया था। विरोध करने पर कहा था कि शुक्र करो हमने तुम्हारी पुस्तक प्रकाशित कर दी। महर्षि दयानंद ने आर्य समाज का एक नियम बनाया है कि “सबसे प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य वर्त्तना चाहिए।” यह शठे शाठ्यम समाचरेत का ही सुधरा हुआ रुप है। हैदराबाद में निजाम की पुलिस ने एक आर्य पुरुष को अपने घर से ओम का झंडा उतारने का आदेश दिया। उसके मना करने पर उसे गोली मार दी गई। उसकी पत्नी अंदर गई और अपने पति की बन्दूक से उस पुलिस अधकारी का काम तमाम कर दिया। इसके बदले में उसे भी गोली मार दी गई। वह भी पति के साथ शहीद हो गई। यह यथायोग्य व्यवहार ही था। अहिंसावादिओं को यह समझ में आना कठिन है अन्यथा व नेताजी व शहीद भगत सिंह का यथोचित सम्मान करते। आज की किश्त के लिए हार्दिक धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      बहुत बहुत आभार, मान्यवर ! आपके सभी विचार हृदयंगम करने योग्य हैं. जिस प्रकाशक ने आपके लेखक मित्र के बदले किसी और का नाम छाप दिया था, उसके विरुद्ध मामला चलाना चाहिए था और उसको दंड दिलवाना चाहिए था. पुस्तक छापकर कोई प्रकाशक किसी लेखक पर कोई उपकार नहीं करता. वह उसको बाज़ार में बेचकर पर्याप्त धन कमाता है.

      • Man Mohan Kumar Arya

        धन्यवाद महोदय। हमारे जिस मित्र के साथ यह घटना घटी थी उनकी वह प्रथम रचना थी। उनका नाम डॉ. दिनेश चमोला है। उन्होंने इस घटना को शायद एक सबक के रूप में लिया था। उसके बात वह आगे ही आगे बढ़ते रहे। एक शोधार्थी ने उन पर पीएचडी भी किया है। वर्तमान में वह आईआईपी देहरादून में हिंदी अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं।

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