कविता

सुख की तलाश

क्यों देखता तू यहां वहां
अपने भीतर तू जाके देख
जीवन के सुख क्या पायेगा
अन्तर्मन् का सुख पाके देख
क्यों क्र रहा है तू तलाश
अपने दुःख के निवारण की
गर पाना है सच्चा सुख तो
औरों के दुःख को मिटा के देख
मंदिर मस्जिद और पीरों को
न तू सजदा क्र क्र के देख
गर पाना है उस ईश्वर को
निज मन को निर्मल करके देख
मत दान करो कागज़ के टुकड़े
ईश्वर अल्लाह के नाम पे
गर पूण्य कमाना ही चाहिए
निर्धन को निवाला खिला के देख
क्यों भाग रहा उन सम्बन्धो को
जो रक्त से सम्बंधित हो
गर रिश्ते ही अपनाने हैं
मानवीय रिश्ते अपना के देख
माना की गर्दिशें बहुत हैं जमाने में
हर शख्स को सुखों की तलाश है
अरे सुख पाकर भी दुख तो फिर भी आएंगे
गर चाहिए जीवन भर
अनंत व् अमर सुख
तो औरों के दुखों को
अपने गले से लगा के तो देख
हर इंसान घोल रहा है ज़ेहर
एक दूसरे की ज़िन्दगी में
एक बार औरों के ज़हर को
अपने गले से उतार क्र तो देख
अपने लिए तो सभी जीते हैं
बस एक बार औरों के लिए भी तो जी के तो देख
जी के तो देख।

महेश कुमार माटा

नाम: महेश कुमार माटा निवास : RZ 48 SOUTH EXT PART 3, UTTAM NAGAR WEST, NEW DELHI 110059 कार्यालय:- Delhi District Court, Posted as "Judicial Assistant". मोबाइल: 09711782028 इ मेल :- [email protected]

One thought on “सुख की तलाश

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी कविता !

Comments are closed.