आत्मकथा

आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 22)

कैप्टेन राजीव का कार्य

सेना से रिटायर्ड कैप्टेन श्री राजीव सिंह कानपुर मंडलीय कार्यालय में सुरक्षा अधिकारी के रूप में पदस्थ थे। वहाँ से पहले वे हमीरपुर क्षेत्रीय कार्यालय में थे, तभी उनसे परिचय हुआ था। वे मेरी बहुत इज्जत करते थे और आज भी करते हैं। उनकी पत्नी श्रीमती वंदना सिंह कानपुर के प्रख्यात रिजेंसी हाॅस्पीटल में डाइटीशियन (खुराक विशेषज्ञ) हैं। वे उस समय एक गुर्दा विशेषज्ञ डाक्टर के साथ कार्य कर रही थीं। गुर्दा रोगियों को अपने खान-पान में बहुत सावधानी रखनी पड़ती है। इसी को ध्यान में रखकर उन्होंने अपने बाॅस डाक्टर के कहने पर एक पुस्तिका लिखी थी, जो गुर्दा रोगियों के लिए भोजन के बारे में थी। कैप्टेन राजीव चाहते थे कि मैं उसे किसी प्रिंटिंग प्रेस से सस्ते में छपवा दूँ, ताकि वे गुर्दा रोगियों में उसका वितरण कर सकें। पुस्तिका छोटी सी ही थी, इसलिए मैंने स्वयं उसे टाइप कर दिया और कानपुर के एक प्रिंटिंग प्रेस में छपवा दिया। उसकी एक हजार प्रतियाँ केवल रु. 2500 में छप गयीं।

निगम साहब की पुस्तक का कार्य

हमारी अशोक नगर शाखा के पास ही एक सज्जन रहते थे श्री राम बली निगम, जिनकी उम्र उस समय 83 वर्ष थी। वे पहले कहीं शासकीय सेवा में थे और रिटायर होकर अपनी पुत्री के पास रहते थे। वे कवि भी थे। उन्होंने एक काव्य पुस्तक लिखी थी ‘आदिशक्ति महिमा’, जो दोहा और चौपाइयों के रूप में थी। इस पुस्तक को उन्होंने अशोक नगर में ही पड़ोस के एक प्रेस में छपवाया था। वे उस पुस्तक से संतुष्ट नहीं थे, क्यों कि उसमें प्रूफ की ढेर सारी गलतियाँ थीं। लगभग हर चौपाई दोहे में कोई न कोई गलती थी। हालांकि उनका काफी पैसा खर्च हो गया था, फिर भी वे चाहते थे कि उस पुस्तक का दूसरा संस्करण ऐसा निकले, जिसमें बिल्कुल गलतियाँ न हों। वे ऐसे व्यक्ति की तलाश में थे, जो इस कार्य में उनकी सहायता कर सके। तब हमारी शाखा के एक स्वयंसेवक श्री दामोदर प्रसाद तिवारी, जो अवकाशप्राप्त थे और वहाँ के लोकमान्य तिलक पुस्तकालय एवं वाचनालय के अवैतनिक प्रभारी थे, ने उनको मेरे बारे में बताया। पहले तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ, लेकिन जब मुझसे परिचय हुआ, तो बड़े प्रसन्न हुए।

मैंने उनकी पुस्तक की साॅफ्टकाॅपी के बारे में पूछताछ की तो पता चला कि पिछले प्रेस वाले के पास कुछ भी उपलब्ध नहीं है और सारा फिर से टाइप कराना होगा। तब मैंने श्री विनीत श्रीवास्तव से ही उनकी पुस्तक भी टाइप करायी और अपने ही कम्प्यूटर पर सुधारी। इसमें मेरा काफी समय लगा, लेकिन कार्य पूरा हो गया। फिर उस पुस्तक को मैंने उसी प्रेस में सस्ते में छपवा दिया, जहाँ कैप्टेन राजीव की पुस्तक छपवायी थी। उसके मुखपृष्ठ के चित्र के लिए मुझे बाजार की खाक छाननी पड़ी, लेकिन काफी दुकानों पर देखने के बाद अन्ततः आदिशक्ति का चित्र मिल ही गया। इस पुस्तक के छपने पर निगम साहब ने मुझे बहुत आशीर्वाद दिये। मुझे भी बहुत प्रसन्नता है कि इस पवित्र कार्य में मैं कुछ सहयोग कर सका।

रूबी

शिवानी वाले फ्लैट में हमारे सामने एक-एक करके दो-तीन परिवार आये। परन्तु हमारी सबसे अधिक घनिष्टता रूबी से हुई। वे एक सरदार परिवार की पुत्री और दूसरे सरदार परिवार की पुत्रवधू हैं। देखने में किसी फिल्मी हीरोइन से भी ज्यादा सुन्दर लगती हैं। लेकिन इससे भी अच्छा है उनका स्वभाव। उस फ्लैट में आने के 15-20 दिन के अन्दर ही उनको हमसे इतना लगाव हो गया था जैसे हमें वर्षों से जानती हों। उनके एक पुत्री खुशी है, जो उस समय केवल 2 या ढाई साल की थी। खुशी हमसे इतना हिल गयी थी कि लगभग दिन भर हमारे ही फ्लैट में रहती थी। वह मोना के साथ बहुत खेलती थी। हमारा भी मन उससे लग जाता था।

रूबी का हाल यह था कि उनका मन भी अपने फ्लैट में जाने को नहीं करता था, क्योंकि उनके पति सरदार जी दिन भर घर से बाहर रहते थे। वे इतनी भावुक थीं कि हँसते-हँसते बातें करते-करते यह सोचकर ही रोने लग जाती थीं कि कुछ दिन बाद या कुछ महीने बाद हमें जाना पड़ेगा और हमारा साथ छूट जायेगा। दुर्भाग्य से हम उनके साथ अधिक नहीं रह सके, क्योंकि कुछ महीने बाद ही हमें मकान बदलना पड़ा। वे अभी भी अशोक नगर में ही रहती हैं, वहीं उनका मायका भी है। हालांकि उनसे हमारा सम्पर्क टूट गया है।

मकान बदलना

मैं ऊपर लिख चुका हूँ कि हमारे मकान मालिक श्री एन.के. सिंह का देहान्त हो जाने के बाद हमारी लीज को 3 साल के लिए आगे बढ़ाया गया था और किराया भी 20 प्रतिशत बढ़ाया गया था। उस समय हमारे वाले भाग का किराया केवल 3300 था। यह हालांकि बहुत कम नहीं था, लेकिन मार्केट के हिसाब से थोड़ा कम था। तब हमारी मकान मालकिन को जाने किसने कह दिया कि अगर हमसे मकान खाली करा लिया जाये, तो वह फ्लैट आसानी से 5 हजार रुपये किराये में उठ जायेगा। कहावत है कि पैसा अच्छे-अच्छों का दिमाग खराब कर देता है। इससे शीघ्र ही उनका व्यवहार हमारे प्रति बदलने लगा और वे हमसे उलझने के मौके तलाशने लगे। डा. रेणु और अनिल जी का व्यवहार तो कुल मिलाकर ठीक था, लेकिन आंटीजी तो एकदम ही हमसे खार खाने लगीं। वे हमारी महरी, प्रेस वाली और कपड़े धोने वाली सभी को परेशान करने लगीं, ताकि वे हमारा कार्य न करें। हमने समझ लिया कि अब यहाँ रहना कठिन होता जा रहा है और सम्भव है जल्दी ही हमें मकान छोड़ना पड़े। तभी एक दिन मामूली सी बात पर आंटी जी भड़क गयीं और एकदम लड़ने लगीं। पहले तो मैंने मामला टालने की कोशिश की, लेकिन वे तो स्पष्ट कहने लगीं कि मकान खाली कर दो। तब हमने कह दिया कि ठीक है दो महीने में खाली कर देंगे।

जिस दिन यह झगड़ा हुआ था, उसी दिन रात के समय अनिल जी का फोन हमारे पास आया कि मकान खाली मत करिये, क्योंकि यह उनको अच्छा नहीं लगेगा। लेकिन हमने उनसे भी कह दिया कि आंटी जी ने आज जो-जो हमसे कहा है उससे हमारा यहाँ रहना असम्भव हो गया है और हम मकान जरूर खाली करेंगे। वैसे भी हमारी श्रीमती जी को जरा-जरा सी बात पर टेंशन हो जाता है और देर तक बना रहता है। इसलिए हम ऐसा घर चाहते थे जहाँ हम शान्ति से रह सकें।

फिर हमने इधर-उधर मकान देखना शुरू किया। हम अशोक नगर में या उसके आस-पास ही मकान चाहते थे, ताकि मेरे लिए आॅफिस जाना और बच्चों को स्कूल जाना आसान हो। पहले हमें एक सरदार जी का घर पसन्द आया। वे लोग भी अच्छे थे और वाजिब किराये में हमें मकान देने को न केवल तैयार थे बल्कि आग्रह भी कर रहे थे। लेकिन उसमें एक समस्या थी कि वह फ्लैट तीसरी मंजिल पर था और उसके बिल्कुल सामने ही एक बारातघर जैसा गेस्ट हाउस था, जहाँ विवाह शादी जैसे कार्यक्रम लगभग रोज हुआ करते थे, जिनके लाउडस्पीकरों का शोर परेशान करता था। इसलिए हमने वह फ्लैट लेने का इरादा छोड़ दिया।

फिर हमें एक घर पसन्द आया। वह भी तीसरी मंजिल पर था, लेकिन काफी आरामदायक था और उसमें तीन कमरे थे। साथ में एक बड़ा स्टोर रूम भी था। उसका किराया भी लगभग उतना ही था, जितना हम अपने वर्तमान मकान में दे रहे थे। यह मकान हमें एक दलाल के माध्यम से मिला था, उसने हमें विश्वास दिलाया था कि यहाँ सब लोग एक परिवार की तरह रहते हैं। हमने इस पर विश्वास कर लिया।

जिस दिन हम मकान बदलने वाले थे, उसके कुछ दिन पूर्व फिर आंटीजी ने हमसे झगड़ा किया। हमने कहा कि हमने 2 महीने में खाली करने का वायदा किया है और अभी 2 महीने पूरे नहीं हुए, फिर क्यों हल्ला मचा रही हो। इस पर वे फिर अनाप-शनाप बोलने लगीं, तो श्रीमती जी ने उनको खूब सुनाया। मैं तो आॅफिस में था, घर आने पर मुझे पता चला। मुझे बहुत गुस्सा आया। हमने जो नया मकान तय किया था, उसमें कुछ काम चल रहा था। हमने उसके मालिक से कहा कि काम हमारे आने के बाद भी चलता रहेगा, इसलिए हम 15 दिन पहले ही आना चाहते हैं। वे मान गये।

एक दिन आंटीजी और अनिल जी ने अपने एक परिचित पुलिस इंस्पेक्टर को बुला लिया। वे उससे हम पर दबाब डलवाना चाहते थे। उस दिन रविवार था और मैं घर पर ही था। पुलिस इंस्पेक्टर ने मुझे बुलाया, तो मैं गया। तभी हमारे परिचित प्रचारक श्री राजेन्द्र जी सक्सेना वहाँ पहुँच गये। पुलिस इंस्पेक्टर ने उनसे परिचय पूछा तो संघ प्रचारक सुनकर वह एकदम चौंक गया। उसने पूछा कि क्या आप चन्द्र मोहन जी को जानते हैं। हमने बताया कि वे तो हमारे बहुत घनिष्ट हैं। इस पर वह बहुत प्रसन्न हुआ। वह चन्द्र मोहन जी को बहुत मानता था।

इस तरह पासा पलटते देखकर आंटीजी और अनिलजी दोनों को साँप सूँघ गया। इंस्पेक्टर ने हमसे कहा कि आप कोई चिन्ता मत करिये और आराम से मकान बदल लीजिए।

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

5 thoughts on “आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 22)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , पर्काशन के बारे में मुझे तो कोई गियान नहीं लेकिन सुना बहुत कुछ है . जिन लोगों की आप ने मदद की वोह दिल से आप को दुआएं दे रहे होंगे . मकान मालक सभी तो एक जैसे नहीं होते लेकिन यहाँ तो लालच ही दिखाई देता है .इस से तो अच्छा होता वोह किराइया बढाने को कह देती . बस यह दुनीआं रंग बरंगी .

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, भाई साहब. अगर वे किराया बढाने को कहते तो हम कुछ न कुछ अवश्य बढ़ा देते. पर वे तो साफ़ साफ़ निकालना चाहते थे. लालच ही इसका कारण था, वर्ना उनके पास पैसे की कोई कमी नहीं थी.

  • मनमोहन कुमार आर्य

    आज की क़िस्त के सभी विवरण तन्मयता से पढ़े। आपने प्रकाशन के क्षेत्र में जिन दो बंधुओं की सहायता की, वह प्रशंसनीय एवं प्रेरणादायक है। ऐसा मेरा अनुमान है कि भवनस्वामियों का अपने किरायेदारों के प्रति व्यव्हार अपवादस्वरुप ही अच्छा होता है। किसी परिस्थिति विशेष में कोई बात भवन स्वामियों की भी ठीक हो सकती है। एक बार हम अपने एक मित्र के साथ उनके मित्र के घर गए। उन्होंने हमारे साथी को बताया था कि जब हमारा किरायेदार हमारी कॉमन दिवार में कील ठोकता है तो हमें ऐसा लगता है कि वह कील हमारे दिल में ठोकी जा रही है। इसके विपरीत हमने अपने घर के सामने एक मकान मालिक महिला को अपने अनेक किरायेदारों से बिजली व जल के उपभोग व रात्रि जल्दी आने को लेकर और अन्यान्य बातो पर लड़ते देखा है। हमारे एक साथी जो बहुत सज्जन हैं, उनका अपना मकान बनने से पहले वह ६ महीने या साल में मकान मालिक की आज्ञा से नया मकान बदला करते थे। मुझे मकान मालिक आंटी जी के व्यवहार में स्वार्थ, अज्ञान और अहंकार परिलक्षित होता दिखाई देता है. कुल मिलाकर आज की क़िस्त रोचक एवं प्रभावशाली होने के साथ ज्ञानवर्धक एवं शिक्षाप्रद भी है।

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, मान्यवर ! आंटी जी का व्यवहार पहले 8 वर्ष तक हमारे साथ उत्तम था. केवल उसी समय उनका मन फिर गया था, शायद पैसे की भूख से. दुनिया में सभी तरह के लोग होते हैं. हम हमेशा किराये के मकानों में रहे, पर इस एक अपवाद को छोड़कर कभी किसी मकानमालिक ने हमसे मकान खाली नहीं कराया. हमने अपनी इच्छा से ही केवल एक बार मकान बदला था. उसकी कहानी आगे पढना.

      • Man Mohan Kumar Arya

        जी, धन्यवाद।

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