संस्मरण

मेरी कहानी – 43

रामगढ़िआ इंस्टिट्यूटस के बारे में कुछ लिखना चाहूंगा। जिस महान शख्सियत ने यह सब स्कूल कालज बनाये उस का नाम था सरदार मोहन सिंह रामगढ़िया। रामगढ़िया एक तरखान जात  है। मैं भी ज़ात का तरखान ही हूँ। इस तरखान जात का नाम रामगढ़िया कैसे पड़ा, इस का एक इतहास है। पंजाब के महाँराजा रणजीत सिंह से पहले सिखों की आठ मिस्लें या आठ जत्थे होते थे जो मुगलों के खिलाफ लड़ते थे। मुग़ल राज कमज़ोर हो रहा था। यह आठ मिस्लें इकठी हो कर मुसलमानों के खिलाफ लड़ती थीं लेकिन जब शान्ति होती तो यह मिस्लें आपस में भी लड़ती रहती थीं  आपस में ही लड़ते झगड़ते इन्होने अपने छोटे छोटे राज कायम कर लिए थे। इन आठ मिसलों में एक थी रामगढ़िया मिसल जिस का जत्थेदार था जस्सा सिंह। उस ने एक किला बनाया था जिसका नाम था रामगढ़। जस्सा सिंह एक तरखान था लेकिन रामगढ़ किला बनाने के कारण इस का नाम पड़ गिया था “जस्सा सिंह रामगढ़िया”. इसी कारण सभी तरखान लोग अपने आप को रामगढ़िये कहलाते हैं और जस्सा सिंह को अपना बज़ुर्ग मानते हैं और उसका दिन भी मनाते हैं,  और इसी लिए जस्सा सिंह के नाम पर बहुत कुछ बनाया गिया है जैसे जस्सा सिंह रामगढ़िया हाल, जस्सा सिंह रामगढ़िया स्पोर्ट्स क्लब्ब इत्यादिक। बाद में रणजीत सिंह ने इन आठ मिसलों को इकठा करके खालसा राज कायम कर लिया था।

मोहन सिंह रामगढ़िया हदिआबाद गाँव का  रहने वाला था जो फगवारे से कोई दो किलोमीटर ही होगा। इस शख्स की पढ़ाई भी मामूली ही थी लेकिन मिहनती बहुत थे । फिर रोज़ी रोटी के लिए असम चले गए और वहां बहुत बड़े ठेकेदार बन गए। इतना धन कमाया कि हदिआबाद के नज़दीक ज़मीन खरीदते चले गए। दूर दूर तक इन की जमीन  थी। क्योंकि तरखान जात एक  पछड़ी हुई जात थी इस लिए मोहन सिंह के मन में इस जात को ऊंचा उठाने की इच्छा थी। यह रहते असम में थे लेकिन मन हदिआबाद में था। १९२९ में इन्होने पहला प्राइमरी स्कूल खोला जो बाद में मिडल स्कूल और १९३३ में  हाई स्कूल बन गिया। १९४६ में आर्ट्स कालज बना और शायद १९५० में पॉलिटैक्निक कालज बनाया गिया। अब तो इतना कुछ बन गिया है कि रिसर्च कालज भी बन गिया है। इन सब के पीछे मोहन सिंह का ही दिमाग था। इन की लगन को देख कर और बड़े बड़े अमीर लोग भी साथ होते गए और यह इंस्टीच्उशंज़ दिन दुगनी और रात चौगनी उनती की ओर जाने लगीं । फिर मोहन सिंह के लड़के की शादी प्रसिद्ध ठेकेदार मेला सिंह भोगल के लड़के से हो गई। मेला सिंह भी एक मशहूर ठेकेदार था। मेला सिंह भी बेछक इतना पड़ा लिखा नहीं था लेकिन इन के मन में भी यही बात थी जो मोहन सिंह के दिमाग में थी। दोनों समधी नई नई इमारतें खड़ी कर रहे थे।

यह शायद १९६० की बात  होगी जब मेला सिंह भोगल हमारे आर्ट्स कालज के नज़दीक एक बहुत बड़ीआ बिल्डिंग बना रहा था। हम अक्सर मेला सिंह को देखते रहते थे। हर वक्त कभी इधर कभी उधर चलता फिरता रहता था और कारीगरों को उन के काम में नुक्स निकालता रहता था। बहुत सख्त सुभाओ का था। कालज में  इन्जीनियरिंग की सीटों के बारे में जब लड़कों की इंटरवीऊ होती थी तो मैनेजमेंट कमेटी के साथ मेला सिंह भी बैठता था। मेला सिंह से सभी कमेटी मैम्बर और प्रिंसीपल साहब भी डरते थे। हम लड़कों ने मेला सिंह की एक  जोक बनाई हुई थी। किसी लड़के की इंटरवीऊ के दौरान लड़के को तरह तरह के सवाल पूछे जाते थे और बीच में मेला सिंह बोल उठता था, “ओए तू यह बता, साइंस आधी पडी है या पूरी ?”. यह बात सच तो नहीं थी लेकिन मेला सिंह के सुभाओ के कारण ही बनाई हुई थी। यहां आज आर्ट्स कालज  है, उस के बिलकुल सामने सड़क की दुसरी तरफ मोहन सिंह की कोठी होती थी और मोहन सिंह के लड़के को अक्सर हम अपनी ऐम्बैज़ेडर कार में जाते हुए देखते रहते थे। मोहन सिंह कभी कभी ही आता था।

हमारे स्कूल का हाल बहुत बड़ीआ था। सिर्फ एक दफा ही हम ने मोहन सिंह का लैक्चर सुना था जिस के कुछ बोल मुझे अभी तक याद हैं। मोहन सिंह से भी सब डरते थे। अपने लैक्चर में उन्होंने करैक्टर के बारे में बोला था और शिवा जी की एक कहानी  सुनाई थी, ” एक दफा एक लड़ाई में शिवा जी की जीत हुई और कुछ सिपाही दुश्मन की एक सुन्दर लड़की को पकड़ कर शिवा जी के पास ले आये । शिवा जी ने उस मुसलमान लड़की से कुछ सवाल पूछे और अपने सिपाहिओं को हुकम दिया की लड़की को बड़ी हिफाज़त के साथ इसके माँ बाप के पास छोड़ आओ ” . फिर कुछ देर बाद मोहन सिंह बोले, ” यह है करैक्टर, अब तुम में से ही कुछ लड़के सोच रहे होंगे कि अगर तुम शिवा जी होते तो तुम किया करते।” हाल में सभी लड़के हंस पड़े। फिर उन्होंने एक और कहानी सुनाई, “एक नवविवाहता खेतों की ओर जा रही थी, एक लड़का उस का पीछा कर रहा था और उस ने उस औरत को कलाई से पकड़ लिया, औरत ने शोर मचाया और वोह लड़का भाग गिया, उस औरत ने घर आ कर अपनी कलाई काट दी। लोग इकठे हो गए थे और डाक्टर को बुला कर कलाई पर पट्टिआं बाँधी गईं। जब खावंद घर आया और कलाई के बारे में पुछा तो औरत ने सब कुछ सुनाया और यह भी कहा, ” मेरे सिरताज ! इस कलाई को एक लड़के ने पकड़ा था और अब यह आप के काम की नहीं रही थी, इस को कहते हैं करैक्टर “.

फिर कुछ देर बाद मोहन सिंह संजीदा हो गए और बोले, ” बचपन से ही  मेरे मन में एक बात थी कि कोई बूटा लाऊँ जिस के फल बहुत लोग खाएं। मैंने असम में भी एक सेब का बृक्ष लगाया था जो अब बहुत बड़ा हो गिया है, उस को मीठे सेब लगते हैं, घर के सभी सदस्य खाते हैं, उन को खाते देख मैं खुश होता हूँ, इसी तरह मैंने रामगढ़िया स्कूल का एक छोटा सा पौदा लगाया था, अब यह पौदा इतना बड़ा हो गिया है कि इस को देख देख कर पर्सन होता हूँ”. मोहन सिंह चुप हो गए, शायद भावुक हो गए थे, हाल तालिओं से गूँज उठा और बहुत देर तक तालिआं बजती रहीं। फिर मोहन सिंह बोला ” इस रामगढ़िया बूटे के साथ साथ और बूटे भी लगाओ, जमीन जितनी भी चाहो लेते जाओ, बस मिल जुल कर इसको आगे बढ़ाओ ताकि आने वाली पीडीआं इन का भरपूर फायदा उठायें ” मोहन सिंह ने एक किताब भी लिखी थी ” सच्चीआं सच्चीआं ” जो पंजाबी में थी।   मैंने वोह किताब पड़ी थी। उन में सच्ची कहानीआं लिखी हुई थी। कहांनियां तो अब मुझे याद नहीं हैं, सिर्फ एक कहानी का कुछ हिस्सा याद है, इस में नीची जात वालों के ऊपर ऊंची जात वालों की बेइंसाफी लिखी हुई थी और फिर नीची जात वाले इकठे हो गए और इतनी उनती  की कि ऊंची जात वाले उन के आगे अब बोलते नहीं थे। उस वक्त जब मैंने किताब पड़ी थी तो मुझे इस के अर्थ बिलकुल नहीं पता थे लेकिन अब मैं समझता हूँ कि उन के दिमाग में अपनी गरीब जमात को ऊंचा उठाने की सोच ही थी। आज मोहन सिंह ज़िंदा होते तो यह देख देख कर कितने खुश होते कि अब यह नीची जात इतनी उन्ती कर चुक्की है कि किसी भी ऊंची जात कहाने वाले से कम नहीं है।

इस के बाद हैड मास्टर अमर सिंह ने स्पीच दी और  बाद में असिस्टैंट हैडमास्टर आसा सिंह जी ने। कुछ देर बाद सब विद्यार्थी हाल के बाहर आने लगे। हमारे साथ करनैल भोगल भी बाहर आ गिया। करनैल भी हमारे ही ए सेक्शन में था। हम से कुछ बड़ा था और उस के दो बेटे भी हो गए थे जिसका हमें पता नहीं था। जीत को किसी से पता चल गिया था। हाल से बाहर आते ही जीत उस को बोला, ” ओए तू तो बापू है, तू स्कूल में किया करता है “. करनैल हंस पड़ा और बोला ” बस दो फ़ुटबाल जैसे मुंडे बना दिए “. करनैल सिंह बहुत ही अच्छा लड़का था। बहुत अच्छे कपडे पहनता और उस के पास रैली बाइसिकल होता था। उस का डैडी भी अफ्रीका में रहता था। करनैल का गाँव था संगत पुर। करनैल पढ़ने में कमज़ोर था और मैट्रिक से भी मुश्किल से पास हुआ था। स्कूल छोड़ने के बाद करनैल ने बहुत काम किये, कभी किसी फैक्टरी में, कभी खुद का कोई काम शुरू कर देता। जब हम कालज में थे तो  करनैल हमें फगवारे शहर में घूमता हुआ मिल ही जाता था। कभी हम को बताता कि उस ने यह काम शुरू किया, कभी वोह लेकिन हम इन बातों से बेखबर ही थे। जब हम इंग्लैण्ड आ गए थे तो कुछ वर्षों बाद करनैल हमें बर्मिंघम में अचानक ही मिल गिया। उस ने भी पगड़ी उतार कर बहुत अच्छा हेअर स्टाइल बनाया हुआ। वोह किसी फैक्ट्री में काम कर रहा था। हम एक कैफे में चले गए और बहुत बातें कीं। उस ने कहा कि इंग्लैण्ड उसको अच्छा नहीं लगा और वापस जाने की सोच रहा था। बोला ” यह कोई ज़िंदगी है ? खुद ही खाना बनाओ, खुद ही कपडे धोओ, नहाने के लिए सिर्फ हफ्ते में एक दफा चांस मिलता और वोह भी पब्लिक बाथ में जा कर, हमारे तो घर में ही एक नौकर था और यहां तो पशुओं जैसा काम है, भाई मैं तो नहीं रहूँगा।” . और इंडिया चले गिया था। उस के बाद बहुत वर्षों तक हम मिले नहीं थे।

यह शायद १९८० के बाद का ही वाकिया होगा, जब हम इंडिया गए हुए थे। मेरी पत्नी की सगी बहन फगवारे के नज़दीक एक छोटे से गाँव “नंगल खेड़ा” में रहती है। नंगल खेड़ा फगवारे से सिर्फ एक मील दूर ही है। पत्नी की बहन को मिलने के लिए हम ने फगवारे से रिक्शा किया। रिक्शा टाउनहाल के नज़दीक वाली सड़क पर जा रहा था कि पीछे से आवाज़ आई, “ए गुरमेल सिंघ अ अ “. मैंने पीछे गर्दन घुमाई तो देखा करनैल सिंह हमारी तरफ देख रहा था। मैंने रिक्शे वाले को खड़ा होने के लिए बोला और उतरकर करनैल सिंह से हाथ मिलाया।  वोह क्लीन शेव ही था और स्मार्ट कपड़ों में खड़ा था और कुछ मज़दूर काम कर रहे थे। बातों बातों में मैंने उनसे पुछा कि वोह किया कर रहा था। उसने बताया कि वोह कुछ दुकानें बना रहा था। यह उस का बिज़नेस ही था कि वोह दुकाने बनाता और उन को आगे बेच देता या किराए पर दे देता था। फिर कहने लगा कि वोह कभी भी इंग्लैण्ड नहीं जाएगा क्योंकि इंग्लैण्ड का मौसम ही उसे पसंद नहीं था और इंडिया आकर उसका बिज़नेस बड़ गिया था और इंग्लैण्ड से इंडिया रहना कहीं बेहतर था। करनैल  हमें चाय पीने  के लिए बोल रहा था लेकिन हम ने रिक्शे वाले को खड़ा किया हुआ था। नंगल खेड़े  से वापस आकर मिलने का  वादा करके हम चल पड़े। पत्नी की बहन से मिल कर जब हम वापस आये तो मज़दूरों ने बताया कि करनैल सिंह संगत पुर को चले गिया था और उस ने दो तीन घंटे तक वापस आना था। हम अपने गाँव को चल पड़े। इस के बाद शायद हम २००० में जब गाँव आये तो मेरे छोटे भाई के बेटे  ने मुझसे पुछा, “ताया जी, कोई आप का दोस्त करनैल सिंह भी है जो आप के साथ रामगढ़िया स्कूल में पड़ता था ?”. जब मैंने हाँ कहा तो मेरा भतीजा बोला, ” ताया जी, करनैल सिंह फगवारे में प्रॉपर्टी डीलर है और उस का काम बहुत बड़ीआ है, जीटी रोड पर उस का ऑफिस है “.

एक दिन मैं करनैल को मिलने के लिए फगवारे गिया। काफी बड़ा उस का ऑफिस था लेकिन करनैल जालंधर गिया हुआ था। उस से मिलना हो नहीं सका। मैं भी अपने कामों में इतना वयस्त रहा कि करनैल को मिलना भूल ही गिया। आज करनैल की याद लिखने बैठा हूँ तो सोचता हूँ, अब तो मेरा जाना असंभव है लेकिन करनैल वहीँ है या कहीं और मुझे पता नहीं। यह ज़िंदगी भी एक अजीब दास्ताँ है।

चलता…

6 thoughts on “मेरी कहानी – 43

  • Man Mohan Kumar Arya

    आज की क़िस्त में आपने किशोरावस्था की भूली बिसरी यादों को शब्द देकर जीवंत कर दिया है। हार्दिक धन्यवाद।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      मनमोहन भाई , बहुत बहुत धन्यवाद .

  • डॉ ज्योत्स्ना शर्मा

    बहुत भाव पूर्ण , सुन्दर प्रस्तुति …सरल शब्दों में दृश्य साकार करती रचना !

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      बहुत बहुत धन्यवाद बहन जी .

  • विजय कुमार सिंघल

    यह कड़ी भी रोचक रही ! मोहन सिंह जी और मेला सिंह जी के बारे में पढ़कर मजा आ गया. ऐसे परोपकारी पुरुष दुर्लभ होते हैं.

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      विजय भाई , इन दोनों महान पुरषों ने बहुत काम किया . मोहन सिंह जी को तो एक दो बार ही देखा लेकिन मेला सिंह जी को तो हम देखते ही रहते थे . मेला सिंह जी हर वक्त जल्दी जल्दी में होते थे ,जैसे उन के पास वक्त कम हो .

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