ये जिंदगी
एक तिलिस्म है, ये जिंदगी,
जितना इसे पाना चाहा,
उतना ही खो दिया !
अंधाधुंध सी दौड में हो शामिल,
तुम भी !
इसे पाने के लिये इसमें होना,
जरूरी है !
बडा पेचीदा सा दिमाग है,
हर इंसान का !
कितनी ही खुशियाँ नाम शोहरत,
मिल जाये यहाँ !
पर मन नहीं भरता उसका,
अंदर से रिक्तता है, जो शायद स्थायी है
सब पाकर भी वो खाली ही रहता है !
और गरीब की क्या खुशी क्या गम,
पैदा होने के साथ ही दब जाता है,
बोझ तले जिंदगी के !
जैसे उसका जन्म ही,
अभिशाप बन गया हो उसके लिये!
आधे पेट भूख में,
गुजारता है बचपन,
माँ -पिता की गालियाँ खाते!
जवानी का कोई पता नहीं,
काम की तलाश में !
फिर घर परिवार का पालने की,
जिम्मेदारी का निर्वहन करने में,
लगता है युवाकाल में ही जिंदगी की,
साँझ घिर आई!
सारे स्वपन और उम्मीदों को मुखाग्नि दे,
अपने होने के सच को,
झुठलाने की कोशिश में,
कामयाब हो ही जाता है !
फिर अफ़सोस नहीं करता
जो न पाया उसका!
और पाने की कोशिश में खुद को,
खुशी-खुशी फ़ना करना,
अपनी नियति मान लेता है !
जला लेता है, अपने मन की लौ,
उसके प्रकाश से निखर,
खुद को तपाता है सोने सा !
तोडता है पत्थर निकालता है पानी,
गरीबी में जन्म लेना गुनाह नहीं,
गरीब मरना गुनाह है !
गरीब वो जिसने वक्त के हाथों,
शिकस्त कुबूल करली !
हिम्मत और होंसलों का हाथ,
जिसने भी थामा,
उसके कदम मंज़िल चूमती है!
उठो आगे बढ़ो,
ये-जिंदगी देxती नहीं लेती है !
तुम्हे कुछ लेना है इससे,
तो टकराना होगा,
खुद बनाना होगा रास्ता अपना!
एक बार मिली है जिंदगी,
हर दिन मरना है,
या इसे मात दे हर पल में,
हजार गुना जीना है !
तय तुम्हें ही करना है !
मौत से टकराने वाला ही,
मौत पर विजय पाता है!
बाकि जिंदगी तो,
जानवर भी जी जाता है!
उठो जागो, तुम अपना रास्ता,
खुद चुनो !
खुशियाँ किसी की बपौती नहीं,
सबका समान अधिकार है,इन पर !
है हौंसला, तो बढ़ाओ कदम,
अपने हिस्से का आस्माँ तुम ले लो,
जमींन तो तुम्हारे ही कदमों में है !
यहाँ जो हँसे हैं, बदहाली पर तुम्हारी,
रश्क करेंगे, तुम्हारी खुशहाली से !
तुम्हारा होना ही, सबूत होगा,
तुम्हारी विजय का…
— राधा श्रोत्रिय ”आशा”
औप्तीमिज़म भरी कविता .
बहुत सुन्दर कविता !