नज़्म/गज़ल
कलम में कैद रहते है,तो दम घुटता है लफ्ज़ो का,
रिहा होकर बाहर निकले ,तो खुल कर सांस लेते है,
कभी नासूर भी इन्सान को ना दर्द दे पाए,
कभी छोटे से घाव भी बड़ी तकलीफ देते है,
गया वो दौर जब इन्सानियत लोगो में ज़िन्दा थी,
कि अब तो लोग,मुर्दो का कफन भी बेच देते हैं,
भला बचपन था जब होता था बस,खुशियों का बंटवारा,
बड़े क्या हो गए मां-बाप भी हम बांट लेते हैं,
इसे कह लीजिए खूबी या यूं कहिए कि फितरत हैं
कि चेहरा देखकर के हम,दिल की बातें जान लेते हैं,
फक़त इतनी ज़रूरत है कि दिल में हौंसला रखिए,
वही मंज़िल को पाते हैं,जो पाना ठान लेते हैं।।
— असमा सुबहानी
अच्छी ग़ज़ल है