स्वतन्त्रता
एक भेड़ के पीछे पीछे
खड्ढे में गिरती जाती पूरी कतार को
पूरी इस कौम को
इतनी सारी ‘मैं’
हम न हो पायीं जिनकी अब तक, उनको…
चंहु ओर होते परिवर्तन से बेखबर
चाबुक खाते
आधी आँखों पे पड़े परदे से सच आंकते
दुलत्ती भूल जो
बस एक सीध में दौड़ लगाते,उन्हें भी…
और बाहर निकलने की कोशिश में
टोकरी के खुले
मुहँ तक बस पहुँचने ही वाले
साथी केकड़े को खींच घसीट कर
वापस पेंदे में पटककर
समानता का जश्न मनाते वो सब….
जुगाली करते
किसी बिसरे युग की
आँखें मूंदे , ऊबते,जम्हाई लेते
फिर इसी संतुष्टि को उगल देते इर्द गिर्द
इसी भ्रमित पीढ़ी पे जो,उन्ही को…
इन्कलाब की आहट पर
उदासीनता की रेत में सर घुसेड़े
निश्चिन्त शुतुरमुर्ग को…
सजे धजे, खाए पिए,खुद पे रीझते अकड़ते
बकरीद के बाज़ार के आकर्षण
बलि होती मासूमियत को…
और खुले पिंजरे को कस कर भींचे
आदत से मजबूर ,प्रेम को…
जी हाँ!
हम सभी को
आज़ादी मुबारक!
— डॉ छवि निगम