ग़ज़ल
खामोशियाँ बोलें तो सुनने का मज़ा कुछ और है
दर्द-ए-दिल चुपचाप सहने का मज़ा कुछ और है
तैरना लाज़िम है माना पार जाने के लिए
पर नदी के साथ बहने का मज़ा कुछ और है
ये महल वाले ना समझे हैं ना समझेंगे कभी
दोस्तों के दिल में रहने का मज़ा कुछ और है
गीत महफिल में सुना कर वाह-वाह मिलती है पर
तनहाई में गुनगुनाने का मज़ा कुछ और है
आँसूओं में डूब जाने वाले इतना जान ले
अश्क पी कर मुस्कुराने का मज़ा कुछ और है
फानूस करता है हिफाज़त शमा की माना मगर
आंधी-तूफानों में जलने का मज़ा कुछ और है
— भरत मल्होत्रा