बारिश…
हवा का झोंका
बारिस का आना
अन्जान की छतरी में
आकर कर छुप जाना
कितना अजीब था
अनजानी राह पर
अजनबी के
कदमो से कदम मिलाना
मधुर एहसास था
उस अजनबी का
खुद भीगना ,
और मुझे बचाना
मेहरबाँ इंद्रदेव थे
या मेहरबाँ वो शक्श था ?
या मेहरबाँ दोनों का मन था
हौले से उसने पूछ लिया
तुम कौन हो ,
कहाँ रहती हो
कहाँ जाना है ???
खामोश जुबा थी
धड़कनो में शोर था
कड़क रही थी बिजली
अँधेरा चहुओर था
आ रही थी मंजिल निकट
कट रही थी राहे सहज
व्याकुल था मन
हौले से सिर्फ एक शब्द ही निकला
चाय पी कर जाइए ।
आज रोज सुबह मैं
उसके लिए चाय बनाती हूँ
मुस्कराते हुए हाथो में कप
लेकर ही जगाती हूँ
— धर्मेन्द्र पाण्डेय
वर्तमान मौसम पर अच्छी सामयिक कविता।