विवशता एक पशु का
मैं चरते हुए देखा,
एक पशु को घास के मैदान में,
हरी बिछली घास पर कर रहा था.
भुख की छुदा को शान्त करने की,
कोशिश अनवरत–
लेकिन इस मानव की कारतुते भी अजीब है,
इसमें भी बाधक बनता है,
उसके साथ किया था, घोर अन्याय।
उसके चार पैरों को बाधकर,
कर दिया था अपने जैसा दो पैर।
बेड़ी लगाया था बेरहमी से,
अगले दोनों पैरों को छान दिया था।
इससे भी उसको तसल्ली नहीं मिली तो,
पिछले एक पैर से,
उन दोनों पैरों को टैग कर दिया था
वो जानवर शालीनता का प्रतीक,
जिसके चेहरे पर,
कभी क्रोध का पहरा नहीं होता।
इस कठिन परिस्थितियों में भी,
चलता था चिड़ियों की तरह फुदककर,
एक गाल घास को खाने के लिए।
पक्षी की तरह जीवन बिता रहा था।
जब होता था उसको कष्ट,
करता था आवाज़-
ही…..पो००००,ही…..पो००००,ही…..पो०००००—-
इस आवाज़ में वह कह रहा है,
मुझे स्वतंत्र कर दो इस प्रकृति के गोद में।
विचरण करने दो विचरणशील प्राणी हूँ मैं
मैं भी एक प्राणी हूँ तुम भी एक प्राणी हो।
फिर भी क्यों करते हो मेरे साथ दगा बाजी।
जब मैं तेरे घर पर था,
खुब काम कराया करता था।
आज मैं बाहर आया हूँ क्यों बाध कर रखा है।
मैं तेरा हूँ दास तु है मेरा स्वामी।
क्या दास को इस तरह से कर्ज चुकाना पड़ता है।
शायद वह गदहा यही कह रहा था।
अपने कर्मों पर झख मार रहा था।
कारण इस मानव को बता रहा था।
@रमेश कुमार सिंह /०४-०७-२०१५
सुन्दर भाव!!
बढ़िया।
आभार!!श्री मान जी।