वेदना
मोरनी अपने परों से
नहीं ढाक पाती अपना तन
जितना ढांक लेता है मोर
अपने पंखों से अपना तन |
ना घर, ना घोसला
मुंडेरो और कुछ बचे पेड़ों पर
बैठकर ये सोच रहे ?
इंसानों को रहने के लिए
कुछ तो है मेरे देश मे
जंगलों के कम होने से
क्या मेरे लिए कुछ भी नहीं है
मेरे इस देश मे |
पिहू -पिहू बोल के
बुद्दिजीवी इंसानों से
कह रहा हो जेसे
इंसानों के हितो के साथ
हमारे हितों का भी ध्यान रखो
क्योकि हम राष्ट्रीय पक्षी है |
नहीं तो कहते रह जावोगे
जंगल मे मोर नाचा किसने देखा
और यही सवाल अनुतरित बन
रह जायेगा महज किताबों मे |
संजय वर्मा “दृष्टि”