आत्मकथा

आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 24)

डा. अनिल का विवाह

डाक्टर अनिल के बारे में मैं पहले लिख चुका हूँ। वे हमारे बड़े साढ़ू श्री हरिओम जी अग्रवाल के भतीजे हैं और कानपुर में गणेश शंकर विद्यार्थी स्मारक चिकित्सा महाविद्यालय से एम.बी.बी.एस. की है। उसके बाद वे गोरखपुर वि.वि. से चर्म रोग में एम.एस. करने चले गये थे। उनके रिश्ते की बात एक लड़की डा. रचना से चल रही थी, जो कानपुर की ही हैं। डा. रचना उस समय झाँसी में एम.एस. में ही पढ़ रही थीं। डा. अनिल के घरवालों ने हमसे कहा कि हम डा. अनिल के साथ लड़की देख आयें और पसन्द कर आयें।

डा. रचना के पिताजी स्टेट बैंक आॅफ इंडिया में वरिष्ठ प्रबंधक थे। वे कानपुर की बर्रा कालोनी में रहते थे, जो हमारे घर अशोक नगर से काफी दूर है। हमारे पास उस समय कोई साधन नहीं था, अतः उन्होंने गाड़ी भेज दी। हम उससे उनके घर गये और डा. रचना को देखा। हमें वे बहुत पसन्द आयीं, लेकिन डा. अनिल को सन्देह था कि घरवाले शायद उन्हें पसन्द न करें। अतः उसने अपने छोटे भाई उमेश को बुला भेजा। अगली बार हम उमेश के साथ उनको काकादेव के एक रेस्तरां में देखने गये। वहाँ उमेश को भी अपनी होने वाली भाभी पसन्द आ गयीं और विवाह तय हो गया।

कुछ दिन बाद उनकी सगाई का कार्यक्रम हुआ और मार्च 2004 में उनका विवाह भी मथुरा में सम्पन्न हो गया। हम दोनों कार्यक्रमों में शामिल हुए थे। हमारी खातिरदारी भी खूब हुई, शायद इसलिए कि लड़की हमने ही पसन्द की थी और डा. अनिल हमें बहुत मानते थे और अभी भी मानते हैं। इस समय डा. अनिल और डा. रचना मथुरा में हैं। उन्होंने अपना नर्सिंग होम बना लिया है और एक पुत्र ंऔर पुत्री के भी माता-पिता बन गये हैं। कानपुर छोड़ने के बाद हमारी उनसे भेंट नहीं हो पायी है, लेकिन फोन पर उनसे श्रीमती जी की कई बार बातें हुई हैं।

टाइपिस्ट की सेवाएँ

उस समय मुझे हाईस्कूल और इंटरमीडियेट के लिए पुस्तकें लिखने का आदेश मिला हुआ था। मैंने टाइपिंग की सुविधा के लिए एक टाइपिस्ट को पार्टटाइम काम के लिए रखा। वे थे श्री गणेश नारायण तिवारी। वे बहुत अच्छे टाइपिस्ट थे और हिन्दी-अंग्रेजी दोनों में बिना गलती के तेजी से टाइप कर लेते थे। वे हमारे एक स्वयंसेवक श्री पाठक जी का कार्य भी पार्ट टाइम करते थे, जो एक अच्छे आर्कीटैक्ट थे। उन्होंने ही श्री तिवारी से मेरा परिचय कराया था। श्री तिवारी जी शाम को 6 बजे आते थे और 2 घंटे कार्य करने के बाद जाते थे। मैं आॅफिस से लगभग 5.45 पर लौटता था। केवल 15 मिनट विश्राम करके मुझे भी उनके साथ बैठना होता था। मैं बोलता जाता था और वे टाइप करते जाते थे। इससे कार्य तो काफी हो जाता था, लेकिन थकान भी बहुत हो जाती थी। कभी मेरे पास समय नहीं होता था, तो मैं अपनी आत्मकथा का पहला भाग जो उस समय कागजों पर ही था, उनको टाइप करने को दे दिया करता था।

श्री तिवारी जी ने दो महीने मेरा कार्य किया, फिर यह कहकर मना कर दिया कि उनके पास समय नहीं है। मैंने एक घंटा प्रतिदिन आने के लिए कहा, तो वे इसके लिए भी तैयार नहीं हुए। अन्ततः मैंने तय किया कि अब सारा काम स्वयं ही किया करूँगा, भले ही समय अधिक लग जाये।

नये साहब

हमारे मंडलीय कार्यालय में दौलतानी जी के जाने के बाद सहायक महाप्रबंधक के रूप में पधारे श्री राकेश कुमार मेहरा। वे भी मेरे पूर्व परिचित और एक प्रकार से मित्र थे। जब मैं वाराणसी मंडलीय कार्यालय में था, तब वे वहाँ वरिष्ठ प्रबंधक के रूप में पदस्थ थे। वे चार्टर्ड एकाउंटेंट हैं और उनके द्वारा एक घंटा एकाउंटेंसी समझाये जाने से मैं इतनी अच्छी तरह समझ गया था कि बैंक की परीक्षा में इस पेपर में मैं एक बार में ही अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो गया था, हालांकि यह विषय जटिल होता है और अधिकांश लोग 2-3 बार में इसे पास कर पाते हैं।

श्री मेहरा इसके अलावा राम चरित मानस के बहुत प्रेमी हैं। उनको यह ज्ञात हो गया था कि कम्प्यूटर और राजनीति के साथ ही धार्मिक मामलों में मेरा ज्ञान औसत से काफी अधिक है। इसलिए कभी-कभी हम आध्यात्मिक चर्चा किया करते थे। वे खाली समय में अंग्रेजी के अच्छे उपन्यास पढ़ा करते थे और कभी-कभी मुझे भी पढ़ने को दिया करते थे।

जब वे सहायक महा प्रबंधक के रूप में कानपुर आये, तो मुझे स्वाभाविक ही बहुत प्रसन्नता हुई। मेरे साथ उनके सम्बंध कुल मिलाकर ठीक ही थे, क्योंकि मित्र होने के बाद भी उनके और मेरे स्तर में बहुत अन्तर था। एक बार उन्होंने मुझे अपना सूचनादाता बनाने की कोशिश की। वे चाहते थे कि मैं आॅफिस में सब पर नजर रखूँ और कोई गलत काम करता हुआ या काम न करता हुआ दिखाई दे तो उनको खबर कर दूँ। मुझे यह अच्छा नहीं लगा और मैंने एक बार भी ऐसी कोई सूचना उनको नहीं दी। यहाँ तक तो ठीक था, लेकिन उनमें एक बड़ी कमी थी- वह थी पैसे की असामान्य भूख। वे बैंक का बहुत पैसा अपनी सुख-सुविधाओं हेतु खर्च किया करते थे। उदाहरण के लिए, उन्होंने आते ही अपने कमरे में दीवाल पर टी.वी. लगवा लिया, हालांकि इसकी आवश्यकता उनसे पहले और बाद में भी किसी भी साहब को नहीं हुई। वे बैंक से बड़ा लोन लेने वालों से भी अच्छी भेंट पाने की आशा करते थे।

लगभग 2 साल बाद जब उनका स्थानांतरण हुआ, तो विदाई में उन्होंने सोने की जंजीर ली। पहले मैंने समझा था कि भेंट की डिब्बी में कोई घड़ी वगैरह होगी, लेकिन जब खोलकर देखने का मौका मिला, तो उसमें सोने की जंजीर थी लगभग 2 तोले की। उनकी विदाई भी परम्परा के अनुसार किसी होटल में होने के बजाय मुख्य शाखा के लाॅन में साधारण तरीके से हुई, ताकि खर्च कम हो और जो पैसे बचें उनसे अच्छी गिफ्ट मिल जाये। रामचरित मानस के एक विद्वान् में पैसे की ऐसी भूख होना मेरे लिए घोर आश्चर्यजनक बात थी।

कपिल के प्रेम रोग का इलाज

मेरी ससुराल में मेरे एक भतीजे को प्रेम रोग हो गया। नई उम्र के लड़कों को यह बीमारी हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। आश्चर्य की बात यह थी कि उसे अपने घर काम करने वाली महरी से प्रेम हो गया था। मैं अपने भतीजे का सही नाम लिखना उचित नहीं समझता। सुविधा के लिए उसका नाम ‘कपिल’ रख लेते हैं। जिस महरी से उसे प्यार हुआ, उसका असली नाम भी मैं नहीं लिख रहा हूँ। सुविधा के लिए ही उसका नाम हम ‘विनीता’ मान लेते हैं। कपिल अच्छा पढ़ा-लिखा है और थोड़ा साँवला होने के बावजूद स्मार्ट लगता है। यह विनीता हालांकि अनपढ़ थी, लेकिन बहुत सुन्दर थी। इसलिए कपिल को उससे प्यार हो जाना कोई अनहोनी बात नहीं है। यह प्यार एकतरफा नहीं था, बल्कि ‘दोनों तरफ थी आग बराबर लगी हुई’ वाला मामला था। अगर कपिल को किसी अच्छे परिवार की लड़की से प्यार हुआ होता, तो घरवाले कभी चिन्तित न होते और अपने लड़के की खुशी के लिए उसे बहू बना लेते। लेकिन एक प्रतिष्ठित परिवार में अपनी महरी को बहू बनाना लगभग असम्भव बात होती है। इसलिए घरवालों ने दोनों पर प्रतिबंध लगा दिये। सबसे पहले तो महरी को हटाया और उसके घरवालों से कहकर उसे उसके गाँव भिजवा दिया। सबने सोचा था कि समस्या हल हो गयी। लेकिन असली समस्या यहीं से प्रारम्भ हुई।

कपिल को किसी प्रकार पता चल गया कि विनीता अपने गाँव में गयी है। उसे उसके गाँव का नाम भी पता चल गया और उसके बाप का नाम वह जानता ही था। एक दिन वह चुपचाप घर से निकल गया और विनीता के गाँव जा पहुँचा। वहाँ जैसा कि स्वाभाविक है लड़की के घरवालों ने उसे बहुत डाँटा और मारा-पीटा भी। फिर उसके घरवालों को खबर की। इधर सब परेशान थे। खबर मिलते ही उसके पिताजी यानी हमारी श्रीमतीजी के चचेरे भाई लड़की के गाँव पहुँच गये और किसी तरह लड़के को पकड़कर लाये।

उस समय मैं कानुपर में था। वहाँ मुझे पता चला, तो बड़ा चिन्तित हुआ। सौभाग्य से कुछ दिन बाद ही मैं किसी काम से आगरा जा रहा था। अपनी ससुराल में जाकर मैंने श्रीमतीजी के चचेरे भाईसाहब से कहा कि मैं कपिल से बात करूँगा। कपिल उस समय अपनी विवाहिता बहिन के पास आगरा में ही दूसरे मोहल्ले में था। वे खुशी से मुझे उसके पास ले जाने को तैयार हो गये। वे तो खुद ऐसे व्यक्ति की तलाश में थे, जो कपिल को समझाकर सीधी लाइन पर ला सके, क्योंकि वह किसी की बात सुनने को तैयार ही नहीं था। वे जानते थे कि कपिल मेरी बहुत इज्जत करता है, इसलिए वे उसी दिन शाम को मुझे अपनी पुत्री के यहाँ ले गये।

वहाँ जाकर मैंने अकेले में कपिल से बात की। पहले मैंने उसी से सारा मामला समझा। फिर कहा- ”प्यार करना कोई बुराई नहीं है। लेकिन अभी तो तुम अपने पैरों पर भी खड़े नहीं हो। तुम्हारी शादी तो मैं उसके साथ एक दिन में ही कोर्ट या आर्यसमाज मंदिर में करा सकता हूँ, लेकिन तुम उसे रखोगे कहाँ और उसे खिलाओगे क्या?“ मैंने उससे एक बार भी यह नहीं कहा कि तुमने गलत लड़की से प्यार किया है या उसको भूल जाओ। मैंने बस यही कहा कि पहले तुम अपने पैरों पर खड़े हो जाओ, फिर शादी के बारे में सोचना। मैंने उससे वायदा किया कि अगर तुम कम से कम 10 हजार रुपये महीने कमाकर दिखाओगे, तो जिस लड़की से तुम कहोगे और वह लड़की भी तैयार होगी, तो मैं तुम्हारी शादी उसी से करा दूँगा। मैंने उसे यह वचन भी दिया कि मैं हमेशा तुम्हारा साथ दूँगा।

वह इस बात को समझ गया कि अपने पैरों पर खड़ा होना जरूरी है। फिर मैंने उससे पूछा कि तुम क्या-क्या काम कर सकते हो? तो वह बोला कि मैं ब्रश बनाना जानता हूँ। वास्तव में वह अपने चाचा की ब्रश की फैक्टरी में कारीगरों का काम देखता था, जिसके बदले में उसे 2-3 हजार रुपये महीने मिल जाते थे। मैंने कहा कि अगर हो सके तो तुम अपनी ब्रश फैक्टरी लगा लो। इसमें मशीन वगैरह में एकाध लाख रुपया लग जाएगा। जगह की व्यवस्था कर लो, चाहे किराये की ही हो। ईश्वर ने चाहा तो तुम्हारा काम चल निकलेगा। इस पर वह तैयार हो गया। उससे कुछ और इधर-उधर की बात करके मैं चला आया।

वापस ससुराल में पहुँचकर मैंने उसके पिताजी से बात की। मैंने उनसे कहा कि मैंने कपिल को समझा दिया है। अब उसको कोई काम चाहिए। अच्छा हो कि आप एक ब्रश की फैक्टरी खुलवा दें, चाहे शुरू में एक ही मशीन हो। वे इस बात पर खुशी से राजी हो गये और कहने लगे कि इसमें लाख-दो लाख जो खर्चा पड़ेगा मैं करने को तैयार हूँ।

इसके कुछ समय बाद ही कपिल ने अपनी ब्रश फैक्टरी शुरू कर दी और ईश्वर की दया से वह काफी सफल रही। प्रारम्भ में वह अपने चाचा के लिए माल बनाया करता था, लेकिन आगे चलकर मेरे ही सुझाव पर उसने अपना ब्रांड बना लिया और सीधे दुकानदारों का सप्लाई करने लगा। यह कार्य भी काफी सफल रहा। इसी बीच विनीता का विवाह कहीं और कर दिया गया और कपिल भी उसे भूल गया। इस प्रकार ‘कपिल-विनीता अध्याय’ समाप्त हुआ।

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

4 thoughts on “आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 24)

  • मनमोहन कुमार आर्य

    आर की आत्मकथा के चारों अध्याय रोचक एवं प्रभावशाली शैली में वर्णित है। आरम्भ से अंत तक रोचकता एवं रोमांच बना रहा। टाइपिस्ट के बारे में सोचा तो लगा की शायद उसे दो घंटे निरंतर व्यस्त रहकर कार्य करना पड़ा होगा जिसका उसे अनुमान नहीं था। इसलिए ही उसने दो महीने बाद नौकरी छोेड दी और एक घंटा प्रति दिन कार्य करने के लिए भी राजी नहीं हुआ। कारण अन्य भी हो सकते हैं। डॉ अनिल जी और श्री कपिल जी के प्रकरणों में आपकी भूमिका सराहनीय है। सहायक महाप्रंधक जी का हाल पढ़कर लगा कि ज्ञानी मनुष्यों का भी स्वार्थ से ऊपरउठना सबके बस की बात नहीं होती है। अच्छे संस्कार या तो पारिवारिक पृष्ठभूमि से आते है या फिर सत्संगति, स्वाध्याय व चिंतनमनन से। हार्दिक धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      बहुत बहुत धन्यवाद, मान्यवर ! आपका कहना सत्य है। मैंने बड़े बड़े ज्ञानियों को धन के ऊपर फिसलते देखा है।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    यह काण्ड काफी रोचक लगा , कपल को सीधे रास्ते पर आप ने ला खड़ा किया जो बहुत सराहनीय है .

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार भाई साहब ! कपिल की इस समस्या का समाधान करने के दो तीन साल बाद फिर एक नयी समस्या पैदा हो गयी थी। उसका समाधान भी मैंने ही किया था। इसकी कहानी आगे लिखूँगा।

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