संस्मरण

मेरी कहानी – 44

अब हम शहर की ज़िंदगी में अच्छी तरह घुल मिल गए थे। जो एक झिजक थी वोह कब की दूर हो चुक्की थी बल्कि शहर के लड़कों पर हम भारी पड़ रहे थे। गाँव के लड़के ज़्यादा तगड़े और झगड़ा करने में आगे होते थे, लेकिन शहर के लड़के कुछ सभ्य थे और कोई झगडे वाली बात में आते नहीं थे। इस का यह मतलब भी नहीं कि स्कूल में कोई लड़ाई होती थी। बस वातावरण ही ऐसा था कि गाँव वाले लड़कों का कुछ रोअब होता था। भुल्ला राई गाँव से लड़के ज़्यादा आते थे और उन में शरारती लड़के भी ज़्यादा ही थे। राणी पुर से तो हम तीन ही थे और इन में मैं तो शरीफ ही था, भजन से सभी लड़के डरते थे और जीत क्योंकि कॉमिडियन टाइप था, इस लिए कोई गलत बोलता तो बातों से उसकी बोलती बंद कर देता था। टीचर भी क्लास रूम में आते ही बोलते, “राणी पुरीये सब आ गए? भुल्ला राइये सब आ गए?”. स्कूल में हम बहुत खुश रहने लगे थे।

कभी कभी मैं सोचता हूँ कि वोह उमर कितनी अच्छी होती थी, न पैसा कमाने का फ़िक्र, ना घर का कोई फ़िक्र। घर से पैसे मिल जाते थे और स्कूल टाइम के बाद फगवारे में घुमते रहते। फगवारे के हर दुकानदार को हम जानने लगे थे। बहादर का जेजे हाई स्कूल फगवारे के सैंटर में ही था, हम अपने स्कूल से बहादर को मिलने चले आते थे और इकटठे हो कर मस्ती करने चल पड़ते थे। जवानी की उम्र भी क्या होती है, हम साइकलों पर स्वार हो कर बाँसाँ वाले तंग बाजार में घुस जाते, घंटीआं बजाते बजाते रिक्शों और इतने लोगों के बीच आगे बढ़ते जाते। जैसे जैसे आगे बढ़ते जाते बाजार और भी तंग होता जाता जो तकरीबन छै फ़ीट चौड़ा ही रह जाता लेकिन हम साइकलों पे डटे घंटीआं बजाते रहते। हमारी मंज़िल होती थी हेम राज हलवाई की दूकान। दूकान की दीवार से साइकल खड़े करके हम चाय और गजरेले का आर्डर देते और कभी कभी चटनी के साथ कचौरीआं भी खाते। हेम राज धोती पहनता था और उस की धोती और कमीज़ इतनी गंदी होती थी जैसे उस के कपड़ों में तेल लगा हो लेकिन कौन जानता है, किसने कहाँ का पानी पीना है।

यह हेम राज भी कुछ सालों बाद इंग्लैण्ड आ गिया था। उस का एक रिश्तेदार जिस का नाम कुंदन लाल था उस ने उसे इंग्लैण्ड की स्पॉन्सरशिप भेज दी थी और इंग्लैण्ड आ कर हेम राज कुंदन के साथ मिल कर शादिओं में रोटी बनाने का काम करने लगा था। मुझे भी तब पता चला जब यहां बर्मिंघम में मेरी पत्नी की दूर से एक रिश्तेदारी से बुआ जी की लड़की की शादी थी। इस शादी में हम पति पत्नी ने बहुत काम किया था और यहीं से बुआ की सारी फैमिली से इतनी मुहबत बढ़ी, जो अभी तक उसी तरह बरकरार है. आज तो बड़े बड़े होटलों में बरात को रोटी खिलाई जाती है लेकिन उस समय रोटी का सारा प्रोग्राम गुरदुआरे में ही होता था। जब मैं गुरदुआरे की किचन में गिया तो देख कर ही हैरान हो गिया कि हेमराज पकौड़े तल रहा था। हेम राज भी मुझे देख कर हैरान हो गिया और मेरा हाथ पकड़ कर बोला,” किदां बोई (boy )” . मैं हंस पड़ा और बोला ,” चाचा ! तू तो अब अंग्रेजी बोलने लगा है।” हेम राज हंस पड़ा और मुझे धीरे से बोला,” काम बहुत ज़्यादा है,मुझे विस्की का अधिआ (half bottle ) ला दे “मैंने कहा चाचा, यह गुरदुआरा है, कहीं किसी को पता चल गिया तो लेने के देने पड़ जाएंगे “. हेम राज बोला, “बोई, इस बात का फ़िक्र ना कर, बस मुझे विस्की ला दे “. मैंने बुआ जी के लड़के को कहा तो वोह हंस पड़ा और जल्दी ही एक दूकान से विस्की ले आया और एक तरफ हो कर विस्की हेम राज को पकड़ा दी। हेम राज ने एक तरफ हो कर एक ग्लास में विस्की डाली और पी गिया। फिर बोला, अब काम का कोई फ़िक्र ना करो, फट्टे चक्क दूंगा काम के।

भुआ का लड़का एक तरफ हो कर हंस कर मुझे बोला,” भा जी,कहीं सब्ज़ियाँ खराब ना कर दे “. मैंने कहा,” फ़िक्र ना कर निंदी, इतनी विस्की तो इसके लिए कुछ भी नहीं है। दो वजे बरात जो कार्डिफ से आई थी को खाना दिया गिया। खाना इतना बड़ीआ था कि सभी बराती खुश थे. उस समय बैरे नहीं हुआ करते थे,घर वाले लड़के ही सर्व किया करते थे। जब हमने बरात को खाना खिला दिया तो बरात के जाने के बाद हम सभी लड़के खाने को बैठ गए। खाना इतना बड़ीआ बना था कि सभी हेम राज की बातें कर रहे थे, निंदी मुझ से बोला,” भा जी यह विस्की का कमाल ही लगता है ” इस पर सभी हंसने लगे। इस के बाद हेम राज मुझे एक दफा ही मिला और उस ने गर्म सूट पहन रखा था, कितनी तबदीली आ गई थी हेम राज में, कहाँ वोह गन्दी धोती, कहाँ बड़ीआ सूट। लेकिन उसके एक रिश्तेदार का लड़का जगदीश मेरे दोस्त बहादर का बहुत पक्का दोस्त है। वैसे तो उन दिनों में मैं, बहादर और जगदीश तीनों इकठे घूमा करते थे और फ़िल्में देखने जाया करते थे लेकिन अब कभी कभी ही हम मिल पाते हैं किओंकि मैं अब कहीं जा नहीं सकता । इस जगदीश को भी हेम राज ने खाना बनाना सिखा दिया था और जगदीश भी शादीओं में खाना बनाने लगा था. मेरी बड़ी लड़की पिंकी की शादी में जगदीश ने ही खाना बनाया था। इस हेम राज की कहानी को छोड़ कर मैं फिर फगवारे में आ जाता हूँ।

मैंने बहुत से लोगों के बारे में लिखा है कि वोह मुझे इंग्लैण्ड में मिले थे। इस की भी एक कहानी ही है, अगर लिखूंगा तो साफ़ ज़ाहिर हो जाएगा कि इंग्लैण्ड में इतने लोग मुझे कैसे मिल गए थे। अभी तो और लोगों के बारे में भी लिखना बाकी है। दरअसल जब १९६२ में मैं इंग्लैण्ड आया था तो उस से कुछ साल पहले बहुत कम लोग इंग्लैण्ड को आते थे। पहले पहल जिस शख्स ने भी इंग्लैण्ड को आना होता था उसको भारत के बिदेस मंत्रालय को अर्जी देनी होती थी जो उस वक्त कनॉट प्लेस दिली के कुछ दूर ही होता था ( मुझे जगह याद नहीं ). यह इंडिया की सरकार ही पासपोर्ट देती थी लेकिन पासपोर्ट लेने के लिए एजुकेशन और स्पॉन्सरशिप की जरुरत होती थी। अगर पासपोर्ट मिल गिया तो फिर सीधे इंग्लैण्ड चले जाते थे कोई विज़े की जरुरत नहीं होती थी । जो अनपढ़ लोग थे उन को एजेंट पाकिस्तान ले जा कर और मुसलमान नाम का जाली पासपोर्ट बना कर कराची से जहाज़ पर चढ़ा देते थे। फिर इंग्लैण्ड की पार्लिमेंट में इमिग्रेशन ऐक्ट बनाने की बात शुरू हो गई। पंजाब में एजेंटों ने शोर मचा दिया था कि जल्दी नया कानून बनने वाला है और अब इंग्लैण्ड को जाना बंद हो जाएगा।

एक पैनिक की स्थिति पैदा हो गई थी क्योंकि बहुत लोग इंग्लैंड को जाना चाहते थे। फिर इंग्लैण्ड की पार्लियमेंट में कानून पास हो गिया कि पहली जुलाई १९६२ से इंग्लैण्ड आने के लिए ब्रिटिश हकूमत को एप्लाई करना पड़ेगा। बस फिर किया था, हर तरफ यही बातें होने लगीं कि इंग्लैण्ड जाना बंद हो जाएगा। कॉलजों स्कूलों के लड़के इंग्लैण्ड जाने के लिए फाइलें हाथ में लिए एजेंटों के दफ्तरों के चक्क्र लगाते। धड़ाधड़ १ जुलाई १९६२ से पहले पहले इंग्लैण्ड के लिए एजैंटों को पैसे देने लगे। इन में मैं भी शामिल था और कानून बनने से सिर्फ बारह दिन पहले १९ जून को इंग्लैण्ड आ गिया और मेरा दोस्त बहादर २६ जून को सिर्फ पांच दिन पहले आया। जब हम यहां आये तो हमारे स्कूल कालज के लड़के हमें यहां मिलने लगे। कई लड़के कई महीनों और वर्षों बाद हमें मिले, कई लड़किआं शादी करा के यहां आ गई थीं। १ जुलाई १९६२ के बाद वाउचर सिस्टम लागू हो गिया जिसके लिए ब्रिटिश फ़ौरन ऑफिस दिली को एप्लाई करना पड़ता था। जो लोग १ जुलाई से पहले आ नहीं सके वोह वाउचर ले कर आ गए।

इस सब में एक नई बात यह हुई कि यहां पहले ज़्यादा अनपढ़ लोग ही आते थे, अब पड़े लिखे स्कूल कॉलजों के लड़के आने लगे। एक और बात यह हुई कि पहले अनपढ़ लोग आठ आठ दस दस साल यहां रह कर ही इंडिया को वापस जाते थे, अब स्कूल कॉलजों के लड़के कुछ साल बाद इंडिया आते और शादी करा कर अपनी पत्नी को भी साथ ले आते और कुछ देर बाद मकान भी खरीद लेते और यहाँ ही बच्चे होने शुरू हो गए और यहीं सैटल हो गए। यह मुक्तसर कहानी मैंने इसी लिए लिखी है कि पाठकों को पता चल जाए कि मैं इंग्लैण्ड वाले इतने लोगों को कैसे जानता हूँ।

बहादर के दो दोस्त होते थे जो जेजे हाई स्कूल में उस के साथ पड़ते थे, एक था फूल जो एक घड़ी साज कपूर सिंह का लड़का था और दूसरा था “कंडा “. कंडा उस का गोत था, नाम मुझे याद नहीं। फूल के पिता जी कपूर सिंह की फगवारे में घड़ीओं की दूकान थी और घड़ीआं रिपेअर किया करते थे। हम कभी कभी दूकान पर चले जाते थे और कपूर सिंह से बातें किया करते थे। कपूर सिंह के ताउलक हमारे साथ दोस्तों जैसे थे। कपूर सिंह फिल्म देखने के बहुत शौक़ीन थे और हम पैराडाइज़ में अक्सर मिलते रहते थे। एक दफा रात के समय जब मैं बहादर और जीत फिल्म देखने गए तो हमारी पास की सीट पर कपूर सिंह कँवल ओढ़े बैठे थे क्योंकि सर्दी बहुत थी। हम उसको देख कर सभी हंस पड़े और बहादर कहने लगा,”बाऊ जी कोई फिल्म छोड़ भी दिया करो “, कपूर सिंह को हम बाऊ जी कह कर बुलाया करते थे। फिल्म थी “नागिन”. कपूर सिंह बोले,” आज यह फिल्म मैं सतारवीं दफा देख रहा हूँ। हम सब हैरान हो गए। फिर यहां धर्म राज का सीन आता है, कपूर सिंह बोला,” देखो देखो, यह धर्म राज सिर्फ कागज़ों का बना हुआ है, देखना थोह्ड़ी देर बाद इस का हाथ हिलेगा “. हम उस की बातों पर हंस रहे थे। फूल तो हमारा दोस्त था ही, कपूर सिंह भी दोस्त ही बन गिया था।

जब मैं और बहादर यहां सैटल हो गए थे तो चार पांच वर्षों बाद कपूर सिंह भी यहां आ गिया। कपूर सिंह बहादर के घर से एक मील के फासले पर ही अपने किसी रिश्तेदार के घर रहने लगा था। जब भी मैं बहादर को मिलने आता तो कपूर सिंह से भी मिलता रहता। कुछ देर बाद कपूर सिंह ने अपनी पत्नी और दो बेटों को भी यहां बुला लिया। फूल की उम्र क्योंकि ज़्यादा थी, इस लिए वोह आ नहीं सका और अब भी फगवारे ही अपनी फैमिली के साथ रहता है। कभी कभी वोह अपने छोटे भाईओं को मिलने यहां आता है तो उस से मुलाकात हो जाती है। फूल के दो छोटे भाई, इंदर और बिल्ला हमारी बहुत इज़त करते हैं। अब तो इन्दर और बिल्ले के बच्चों की भी शादियां हो चुक्की हैं। कपूर सिंह और उस की पत्नी कब के इस दुनिआ से रुखसत हो चुक्के हैं।

क्योंकि मैं अब कहीं जा नहीं सकता, इस लिए मेरे दोस्त बहादर ने एक साल हुआ मेरे लिए एक छोटी सी पार्टी घर में ही रखी थी। बहादर का ही यह आईडीआ था कि मुझे सभी पुराने दोस्तों से मिलने का अवसर मिल जाएगा। मेरे बच्चे और पत्नी मुझे बहादर के घर ले गए। धीरे धीरे सभी पुराने दोस्त और कुछ रिश्तेदार भी आ गए थे। इंदर और बिल्ले की पत्नीआं और बच्चे भी थे। खूब महफल जम्मी, जिस तरह कुछ साल पहले जमती थी। कपूर सिंह के लड़के तो हर वक्त मेरे साथ बैठे रहे और छोटा बिल्ला तो ग्लॉसी में थोह्ड़ी सी विस्की मुझे ला देता और कहता,” भा जी, यह तो पीनी ही पड़ेगी, यह पियार की है, बहुत देर के बाद मिले हैं, आज फिर वोही दिन आया है “. मेरी पत्नी भी हंस पडी और बोली,” अब तो आप को यह पीनी ही पड़ेगी, मुंडा इतने पियार से ऑफर कर रहा है “. और मैंने वोह ग्लॉसी पी ली। सभी ने तालिआं बजा दीं। मेरे लिए यह बहुत सुहानी शाम थी। बस इस को किया कहें,” दुनिआ का मज़ा ले लो दुनिआ सुहानी है जी दुनिआ सुहानी है “.

चलता। ……

6 thoughts on “मेरी कहानी – 44

  • Man Mohan Kumar Arya

    आज की क़िस्त में उल्लेखित सभी घटनाएँ रोचक एवं प्रभावशीली शैली में लिखी गई है। एक नदी के प्रवाह की तरह ऊपर से नीचे को न बहकर जीवन नीचे से ऊपर उठता व मंजिल की ओरे जाता दिखाई दे रहा है। हार्दिक धन्यवाद।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      मनमोहन भाई , सोचा ही नहीं था कि कभी अपनी आतम कथा लिखूंगा ,लेकिन अब लिखने बैठा हूँ तो भूली विसरी यादें ताज़ा हो रही हैं . आप का बहुत बहुत धन्यवाद .

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    मस्ती भरा बचपन से कॉलेज तक जीवन रहता है
    रोचक अंश आत्मकथा का

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      विभा जी , वोह दिन कितने अछे थे ! कुछ कमाने का झंजट नहीं था , किताबें हाथ में लिए गप्पें हांकते घुमते रहते , याद करके मज़ा आता है . आप का हार्दित धन्यवाद .

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत खूब, भाई साहब ! आपका यह संस्मरण बहुत रोचक रहा। पढ़कर मज़ा आ गया।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      विजय भाई , बहुत बहुत धन्यवाद .

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