दो अजनबी !
चलते चलते अनन्त यात्रा के राह में
एक अजनबी से मुलाक़ात हो गई
कुछ दूर साथ-साथ चले कि
हम दोनों में दोस्ती हो गई |
कहाँ से आई वह ,मैंने नहीं पूछा
मैं कहाँ से आया ,उसने नहीं पूछा
शायद हम दोनों जानते थे
जवाब किसी के पास नहीं था |
अजनबी थे हम मिलने के पहले
अजनबी रहे हम,जब मिलते रहे
अलविदा के बाद भी अजनबी रहेंगे
जैसे अजनबी थे मिलने के पहले |
सफ़र कितनी लम्बी है?न वो जाने न मैं
छोटी सी इस जीवन-सफ़र में
हर कदम पर रही साथी वो मेरा
और उसका हम सफ़र रहा हूँ मैं |
सुख-दुःख के हर पल को
दिल से लगाकर बनाया अपना
हम दोनों के मिलन का सफ़र
बन गया एक यादगार अफ़साना |
© कालीपद ‘प्रसाद ‘
अच्छी कविता !