कविता

नैना

कभी उठती-कभी झुकती
शर्म से सराबोर ये नैना
कभी जलती कभी बुझती
दीये की कोर ये नैना
कभी चलती कभी थमती
नदी का छोर ये नैना
कभी जगती कभी सोती
बड़े चितचोर ये नैना
कभी इत तो कभी उत डोलते
पतंग की डोर ये नैना
कभी हौले से पलक को खोलती
नयी सी भोर ये नैना
विरह की आग में जलती
सजनी के हृदय की हिलोर ये नैना
कभी हंसती कभी रोती
घटा घनघोर ये नैना
तुम धड़कन इस दिल की
धड़कन का शोर ये नैना

मधुर परिहार 

One thought on “नैना

  • विजय कुमार सिंघल

    शानदार कविता !

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