गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

मेरी जागीर ना तुम हो नहीं कुछ हक मेरा चलता ।
हुई थी आँख मेरी नम मैं खत में और क्या लिखता ।।

जुल्फ़ की हर अदाएं भी बोल जाती है ये अक्सर ।
पड़ेंगी दौलते ये कम मुझे तू बे वफ़ा लगता ।।

मिल्कियत है उसे हासिल कद्र से जो था न वाकिफ ।
जमी बंजर वही बेदम नहीं है हल जहाँ चलता ।।

मैं बादल हूँ वही जिसमें बरसने की तमन्ना है ।
नसीबों में नहीं मौसम यहाँ सावन बुरा मिलता।।

मुकद्दर में मिलन का वक्त जब कर दे मुकर्रर वो ।
है बनती ,शब् भी है शबनम नहीं सूरज उगा करता ।।

ढलेगी उम्र भी तेरी ढलेंगे मैकदे भी अब सब।
सनम तेरा सितम ता उम्र तक कैसे यहाँ चलता ।।

तुम्हारी बज़्मे महफ़िल में गजल गाता रहा है वो ।
तेरी पायल की झनकारे उसे अब सुर नया मिलता।।

नवीन मणि त्रिपाठी 

*नवीन मणि त्रिपाठी

नवीन मणि त्रिपाठी जी वन / 28 अर्मापुर इस्टेट कानपुर पिन 208009 दूरभाष 9839626686 8858111788 फेस बुक naveentripathi35@gmail.com

One thought on “ग़ज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत शानदार ग़ज़ल !

Comments are closed.