“भूकंप”
दृग दिगंत भूकंप भवन्ती
कदली पात हिलें अवनंती
बरसे बिजली बारीश ओला
कापें घर नर धरा हिलंती ||
हाय मनुज तुम कितने लायक
खुद बन बैठे सर शिर नायक
तनिक उचाट धरी धरती जब
हिले गगन मंह महि-महिपालक ||
करि कसूर पुरुषार्थ पुकारत
जिय मह खोट बिनासे हारत
धरी त्रिनओट रहति वैदेही
तुम काहें निज लंका जारत ||
स्वर्ण हिरन दशमाथ दशानन
ऋषि अगस्त कर श्राप सिखावन
जो जस करहिं सो तसफल चाखा
कलुषित ह्रदय कुटिल मनभावन ||
हाहाकार केहिं कारन भ्राता
पुनि आवत कल्पात निपाता
अब सिख लेहु परम विज्ञानी
नाहीं ते होहिं जनम उतपाता ||
मातु-पिता गुरू धरम सुभाहूँ
आपहि बैर कब होय निबाहूँ
सम समीकरण प्रकृति जगमाहूँ
धरती माँ बिनु जनम की काहूँ ||
भूमंडल अम्बर बिन तारा
जल बिनु जीवन कौने पारा
अधिक बोझ भरि डूबे नैया
वा मझधार भा छिछलि किनारा ||
सदा गगनचर उडत अकाशा
बुझत आपनि पहुँच निकाशा
फिरि आवत अवनी धरि धीरा
संचय करत न तिमिरी प्रकाशा||
बुद्धी विवेक मानुष बलवाना
हरि जाने हरि कृपा निधाना
तापर बैर तिन्हहि संग ठाने
छल-प्रपंच कपटी विधिनाना ||
भई प्रकृति विपरीत विधाना
ममतामयी जीवन कल्याना
हें कपूत माँ कुमाता न भवती
संतुलन हेतु भूकंप रिसाना ||
— महातम मिश्र
सुंदर चौपाई श्रीमान जी
सादर धन्यवाद प्रिय रमेश सिंह जी, आभार
अच्छी चौपाइयां
सादर धन्यवाद आदरणीय विजय कुमार सिंघल जी