आत्मकथा

आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 27)

परिवार का आगमन

लगभग एक माह बाद मई समाप्त होने से पहले ही मैं कानपुर जाकर अपने परिवार को ले आया। तब तक मोना की भी परीक्षा हो चुकी थी और उसका परिणाम भी आ गया था। ट्रांसपोर्ट से सारा सामान भी सुरक्षित आ गया। आगरा से श्रीमतीजी के भाई श्री आलोक कुमार भी आ गये थे, हालांकि मैं उनको परेशान नहीं करना चाहता था। श्रीमतीजी के आ जाने के बाद हमारा निवास कुछ व्यवस्थित हुआ।

यहाँ अपने कुछ पड़ोसियों का परिचय देना अच्छा रहेगा, जिनसे आगे चलकर हमारे बहुत अच्छे सम्बंध बन गये थे।

हमारी बायीं ओर वाले मकान में डा. एस.के. चड्ढा रहते थे। वे पशु-पक्षियों के डाक्टर थे और मुर्गियों का इलाज विशेष तौर पर करते थे। उनकी अच्छी आर्थिक हैसियत थी। उनकी पुत्री लहर चड्ढा, जिसे हम सब गुड़िया कहते हैं, बहुत सुन्दर और योग्य है। उसने नैनोटैक्नोलाॅजी में एम.एससी. किया है। बाद में उसका विवाह सोनीपत के एक इंजीनियर से हुआ, जिसमें हम सभी सम्मिलित हुए थे। डा. चड्ढा का एक लड़का कुणाल है। वह दीपांक की क्लास में ही था, किसी दूसरे कालेज से इंजीनियरिंग कर रहा था। अब वह इन्फोसिस की ट्रेनिंग में है। चड्ढा परिवार से हमारे बहुत अच्छे सम्बंध थे। चड्ढा भाभीजी हमारी श्रीमतीजी पर बहुत विश्वास करती थीं और हर मामले में उनकी सलाह लेती थीं।

डा. चड्ढा के मकान में प्रथम फ्लोर पर एक किरायेदार परिवार रहता था, जिसमें केवल पति-पत्नी थे। पत्नी का नाम रूबी जिन्दल था। वह भी बहुत सुन्दर और हँसमुख थी। उससे भी हमारी काफी घनिष्टता थी। बाद में डा. चड्ढा ने उनसे मकान खाली करा लिया था और वे सेक्टर 21 में रहने चले गये थे। उसके बाद विशेष मौकों पर ही उनसे मुलाकात होती थी।

हमारी दायीं ओर का बगल वाला मकान अधूरा और खाली था। 2 साल बाद उसमें एक अग्रवाल परिवार रहने आ गया। उनकी श्रीमतीजी नरेश लता बहुत अच्छे स्वभाव की थीं। उनसे हमारे बहुत घरेलू सम्बंध हो गये थे। बाद में हमारे पंचकूला छोड़ने से पहले ही वे किसी और घर में चले गये थे। हमारे जाने के बाद वे फिर उसी घर में आ गए थे.

गीतांजलि

सामने वाली लाइन में हमारे घर के ठीक सामने कोने वाले घर में एक चौहान परिवार किराये पर रहता था। वे बागपत के रहने वाले हैं। उनके पुत्र श्री अरविन्द चैहान नेटवर्क इंजीनियर हैं और किसी कम्पनी में बहुत अच्छे पैकेज पर कार्य करते हैं। अरविन्द जी की पत्नी श्रीमती गीतांजलि भी बहुत योग्य और हँसमुख हैं। कुछ ही महीनों में उनकी हमारी श्रीमतीजी से इतनी घनिष्टता हो गयी थी, जितनी उनकी किसी और परिवार या पड़ोसी से नहीं थी। बाद में जब उन्होंने अपना घर सेक्टर 16 में खरीदा, तो उसके गृहप्रवेश में उन्होंने पूरे मोहल्ले से केवल हमें बुलाया था। उनके नये घर में भी हम बहुत बार गये थे। गीतांजलि का स्वभाव बहुत ही अच्छा है। वह हमारी काफी सहायता भी करती थी। कई बार वह मुझे हवाई अड्डे और रेलवे स्टेशन तक भी लेने या छोड़ने गयी थी। एक बार जब मेरे साढ़ू श्री सुनील कुमार अग्रवाल सपरिवार चंडीगढ़ घूमने आये थे, तो गीतांजलि ने हमारी गाड़ी से उनको पूरा शहर दिखा दिया था। कारण यह है कि हमारी श्रीमतीजी गाड़ी चलाने में डरती हैं, जबकि गीतांजलि इसमें सिद्धहस्त है।

उनके दो पुत्र हैं, जो दोनों अपने माता-पिता की तरह ही योग्य और सुन्दर हैं। उनका छोटा पुत्र लावण्य, जिसको लव कहते हैं, बहुत ही चंचल है। एक बार हमारे घर पर खेलते हुए उनका बड़ा पुत्र पुरुषार्थ, जिसे पुरु कहते हैं, पलंग से नीचे गिर गया। वह शर्माकर जमीन पर ही बैठा हुआ था। तभी उसका छोटा भाई लव तुतलाते हुए बोला- ”अबे याऽऽल! अब उथ जा। नीचे ही बैथा रहेगा?“ उस समय वहाँ कई औरतें थीं, उनको यह सुनकर बहुत मजा आया।

बीच में अरविन्द जी ने जाॅब बदल दिया और गुड़गाँव में एक अन्य कम्पनी में कार्य शुरू किया। परन्तु एक-डेढ़ साल बाद ही उनको फिर चंडीगढ़ में ही अच्छा जाॅब मिल गया। अब वे चंडीगढ़ में ही हैं। हमारा उनसे सम्पर्क लगातार बना हुआ है। जब हम पंचकूला छोड़कर आ रहे थे, तो उन्होंने एक अच्छे होटल में हमें पार्टी भी दी थी। गीतांजलि आजकल किसी विद्यालय में अध्यापिका हैं। इससे उनका समय अच्छा कट जाता है। वे सभी मेरी तो बहुत ही इज्जत करते हैं। पंचकूला छोड़ने पर हमें सबसे अधिक दुःख गीतांजलि से दूर जाने का हुआ था।

मित्तल भाईसाहब

उसी मोहल्ले में एक अन्य परिवार से हमारी अति घनिष्टता हो गयी थी। वे हैं श्री मोहिन्दर मित्तल, जो ट्रांसपोर्ट का कार्य करते हैं। उनकी पत्नी श्रीमती निशा बहुत स्नेही हैं। मुझे तो सगे देवर से भी अधिक प्यार और सम्मान देती हैं। उनके एक पुत्री कु. अंकू है, जो दीपांक के विद्यालय में ही हायर सेकंडरी में पढ़ रही थी। बाद में उसने एक अन्य कालेज से बी.टेक. किया। उसका सलेक्शन इन्फोसिस में हो गया था, परन्तु पोस्ंिटग भुवनेश्वर में मिली। इसलिए वह नहीं गयी। अब वह एम.बी.ए. कर रही है। मित्तल भाईसाहब के एक पुत्र भी है चि. चक्षु, जो चंडीगढ़ में ही इंजीनियरिंग कर रहा है। वह भी बहुत योग्य है।

इस परिवार से हमारे सम्बंध बहुत ही घनिष्ट थे। जब कभी वे बाहर जाते थे, तो पूरा घर हमारे भरोसे छोड़ जाते थे। मैं रात में वहां सो जाता था। उनके साथ कई बार हम शहर के आसपास घूमने गये थे, जैसे मंसादेवी मंदिर, शिव मन्दिर, गौशाला आदि।

(पादटीप : अब अंकु का विवाह हो चुका है.)

पंकज सैनी

श्री पंकज सैनी, जिन्होंने हमें मकान किराये पर उठाया था, सामने वाली लाइन में ही दो घर छोड़कर रहते हैं। वे प्रिंटर वगैरह ठीक करने का कार्य करते हैं और ठीक-ठाक कमा लेते हैं। प्रारम्भ में उनका आॅफिस चंडीगढ़ के सेक्टर 17 में था, जो किराये का था। बाद में दुकान के मालिक ने कुछ मुआवजा देकर वह आॅफिस खाली करा लिया। उस मुआवजे से पंकज जी ने पंचकूला के मंसा देवी काॅम्प्लैक्स में एक दुकान किराये पर ले ली और वहाँ आॅफिस खोल लिया। कुछ समय बाद वह भी अच्छी प्रकार चलने लगा।

पंकज जी के एक पुत्री और एक पुत्र है। पुत्री अमृता काफी सुन्दर है, हालांकि चश्मा लगाती है। पढ़ने में वह उतनी योग्य नहीं है, फिर भी ठीक है। मैं पढ़ाई में उसकी सहायता करता रहता था। अब वह बी.काॅम. कर रही है। पंकज जी का पुत्र अमोल भी पढ़ने में ऐसा ही है, लेकिन वैसे बहुत होशियार है। वह कम्प्यूटर हार्डवेयर का अच्छा जानकार है और इसी को अपना कैरियर बनाने वाला है। इससे वह अपने पिता की दुकान भी सँभाल लेगा।

पंकज जी के पिताजी पंजाब विश्वविद्यालय में एकाउंटेंट पद से रिटायर्ड हैं। उनको पंकज जी ”डैडी“ कहते हैं, इसलिए हम सब भी उनको डैडी ही कहा करते थे। पंकज जी से हमारे सम्बंध काफी घनिष्ट थे। वे अमोल के करियर के बारे में मुझसे सलाह लेते थे। एक बार अमोल गलत रास्ते पर चलने लगा था, तो मेरे समझाने पर सही रास्ते पर आ गया था।

इन परिवारों के अलावा कई अन्य परिवारों से भी हमारी घनिष्टता थी, जैसे सामने वाले बाबूजी का परिवार, उनके ऊपर किराये पर रहने वाली नीरा छाबड़िया भाभीजी का परिवार, दो-तीन घर छोड़कर पूनम गोयल भाभीजी का परिवार और पंकज जी के पास वाले घर में बरनाला वाले श्री काकरिया भाईसाहब का परिवार। ये सभी हमसे बहुत स्नेह करते थे।

इनके अलावा भी कई परिवारों से हमारे अच्छे सम्बंध थे। यहाँ उन सबका उल्लेख करना सम्भव नहीं है। वास्तव में वहाँ एक किटी पार्टी चलती थी। हमारी श्रीमती जी को आग्रहपूर्वक उसका सदस्य बनाया गया था और हर माह पार्टियाँ हुआ करती थीं। इसी कारण लगभग एक दर्जन परिवारों से हमारी श्रीमतीजी की घनिष्टता हो गयी थी।

यहाँ यह बता देना आवश्यक है कि पंचकूला में अधिकांश लोग अच्छा कमाने-खाने वाले हैं। अधिकांश लोग अपने ही मकानों में रहते हैं, जिनकी कीमत करोड़ों में है। कई परिवारों के पास तो इतना पैसा कि वे नहीं जानते कि उसका क्या करें। इसलिए प्राॅपर्टी पर प्राॅपटी खरीदते रहते हैं। इनमें से अधिकांश व्यापारी हैं और अपनी आय कम बताते हैं, इसलिए बहुत कम टैक्स देते हैं। टैक्स से बचाया हुआ पैसा उनके पास एकत्र होता जाता है। दूसरी ओर नौकरी करने वाले लोगों के एक-एक पाई पर टैक्स लग जाता है। इससे वे अधिक बचत नहीं कर पाते।

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

5 thoughts on “आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 27)

  • Man Mohan Kumar Arya

    आज की कथा के सभी पात्र हमारे आत्मकथा लेखक के स्नेही एवं सहयोगी रहे, यह पढ़कर प्रसन्नता हुई। किसी विद्वान ने कहा है कि हम जीवन का बहुमूल्य समय लगाकर धन कमाते है परन्तु धन गुंडों व बदमासो से हमारी रक्षा नहीं करता। चोर को वह यह नहीं कहता कि मुझे इस व्यक्ति ने कमाया है मै इसे छोड़कर चोर के साथ नहीं जाऊंगा। बहुत से लोगो की तो धन दौलत के कारण मृत्यु हो जाती है। मैंने कोर्ट में सम्पति के स्वामियों को वर्षों से मुक़दमे में उलझे हुवे देखा है। यजुर्वेद ने कहा है की “कस्य स्वितधनम्” अर्थात यह धन किसका है? मंत्र में ही उत्तर है कि यह धन सुखस्वरूप परमात्मा का है। ‘विद्यामृत मश्नुते’ व ‘तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेतिमति नान्यः पन्था विद्यते अयनाय।’ अर्थात विद्या से मनुष्य मृत्यु से दूर होकर अमृत की प्राप्ति करता है और ईश्वर को जानकार ही मनुष्य अभिविनेश क्लेश मृत्यु के पार जा सकता है। अन्य कोई मार्ग मृत्यु से पार जाने का नहीं है। धन की तीन गतियां हैं – भोग, दान वा नाश। धन की शोभा दान से है अन्यथा अधिक धन मनुष्य के नाश का कारण बनता है। यह शायद चाणक्य जी का वचन है। मैं भावनाओं में बाह कर कुछ अधिक लिख गया हूँ। क्षमा करें।

    • विजय कुमार सिंघल

      बहुत बहुत धन्यवाद, मान्यवर ! आपका कहना सवा सोलहो आना सत्य है. ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथा’ यही मेरा सिद्धांत है.

      • Man Mohan Kumar Arya

        धन्यवाद श्री विजय जी। आपने मुझसे छूट गए शब्दों को प्रस्तुत कर दिया। मेरा भी यही सिद्धांत रहा है। मैं अपने कुल आधे जीवन में अभावग्रस्त रहा हूँ परन्तु धन का लोभ कभी नहीं रहा। आज जितना है उसमे संतुष्ट हूँ।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , आज की किश्त भी बहुत रोचक लगी . आप की बात से मुझे याद आया कि बिजनैस वाले लोग तो हर तरह से पैसे बचा लेते हैं लेकिन काम करने वाले के पास कोई ऐसा जादू मंतर नहीं होता कि वोह कहीं से पैसा बचा ले . मैंने भी सारी उम्र काम ही किया है और वेजज़ का तकरीबन चौथा भाग काट हो जाता था , एक एक पैनी काट ली जाती थी लेकिन एक बात से संतुष्टी जरुर है कि अमीर तो नहीं बन सके लेकिन जिंदगी मज़े से काट रहे हैं .

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, भाई साहब ! आपका कहना सच है. पैसा मेरे पास भी बहुत ज्यादा नहीं है, लेकिन अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त है. कभी मुझे अचानक बड़ी राशि की आवश्यकता होती है, तो प्रभु स्वयं ही कहीं न कहीं से प्रबंध कर देता है. मुझे किसी के सामने हाथ नहीं फैलाना पड़ता और न कोई कष्ट उठाना पड़ता है. इसके उदाहरण आप आगे पढेंगे.

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