तुझे क्या कहुं
यूं धर्मो के नाम पर, गर हम बंटे ना होते
ये मंदिर,ये मस्जिद के झगडे ना होते।
बेगुनाहों का खून ,यूं गलियों मे ना बहता
बेवाएं यूं ना तडपती, मासूम यूं अनाथ ना होते॥
तेरी फितरत ने कुदरत को भी, शर्मसार कर दिया
कायनात के ताने बाने को, तार तार कर दिया।
ओ इंसान, तुझे तो उसने अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति कहा
और तूने ही उसके उसूलों को, दरकिनार कर दिया॥
तुझको अन्दाज ही नही, तेरा ये कृत्य क्या कहर ढा रहा है
मगरूर ,अहसान फरामोश तु उस कुदरत को आजमा रहा है।
जिसने नवाजा था तुझे, अपनी बहतरीन इनायतों से
उसी के नाम पर ,तु उसी के बन्दों का लहु बहा रहा है॥
तु इंसान तो नही हो सकता, सोच मे पडा हूं तुझे क्या कहुं
तेरे राक्षसी पाखंड को अधर्म कहूं, या फिर गुनाह कहुं।
सम्बोधन के लिये, क्रूरता का कोई शब्द ही नही मिलता
हे परमात्मा तू ही बता, तेरी श्रृष्टि के इस विकार को में क्या कहुं॥
सतीश बंसल