खामोश आंखें
जाने किस तलाश मे थी, वो खामोश आंखें
सोच रही थी अपने अतीत के बारे मे, या सहमी थी
भविष्य की सोचकर।
ठहरी सी लगती थी
किसी विनाश लीला के बाद के मंजर की तरहा।
लिये हुए गहरी खामोशी अजीब सा सूनापन।
या फिर देख रही थी
जमाने की सबसे बडी
सबसे कडवी सच्चाई को।
महसूस कर रहीं थी
बुढापे की लाचारी को।
वो पथराई सी आंखे॥
या तलाश रही थी
भीड भरी दुनियां मे, किसी अपने को
जो छोड गये रिश्तों को
बोझ का दलदल समझकर।
निहार रही थी
रिश्तो की बेदर्द दुनियां को
जहां सिर्फ शायद
एक ही रिश्ता बचा है
व्यापार का रिश्ता
फिर भी ना जाने क्यूं
वो बूढी आंखे, ढूढती है अब भी रिश्तों को,
उन निढाल आंखो की बेबसी
दिल पर मानो तीर चला रही थी
करा रही थी सहसास
उस असहनीय खामोश दर्द का
जो मिलता है अपनो से
ढलती उम्र के अंतिम पडाव पर…..
सतीश बंसल