बेटी का दर्द
में उडने के सपने संजोती रही,वो मेरे पंख काटते रहे।
मे चन्द खुशियां तलाशती रही,वो मुझे घांव बांटतें रहे॥
कुछ यूं दी जमाने ने, बेटी होने की सजा मुझे।
कि बेटों की फसल से ,जैसे खरपतवार छांटते रहे॥
सांसे तो क्या ,मेरी सोच तक पर पहरे बिठाऐं है
सदमें मे हूं, तमाम प्रतिबंध सिर्फ मेरे लिये क्यूं लगायें है।
समाज के ठेकेदारों से, पूछने की कोशिश तो बहुत की।
मगर यहां सबने ,चेहरे के ऊपर कई चेहरे लगाऐ है॥
यूं तो करते है मेरा पूजन भी, देवी बना आरती भी उतारते है
बहु चाहिये तो, बेटी की महिमा भी खूब विचारतें है।
पर इस पुरुष प्रधान समाज मे, उसी मात्र शक्ति को
कभी तेजाब से जलातें है, कभी दहेज की खातिर मारतें है॥
ना मेरी सोच अपनी है, ना मेरे सपने सपने है
जो जिम्मेदार है मेरी इस हालत के, वो मेरे खास अपने है।
जन्म से लेकर जाने तक, मेरी बस यही कहानी है
इस घर भी गम के आंसू है, उस घर भी दर्द का पानी है॥
सतीश बंसल