धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

मानव का भविष्य एवं भविष्य का महामानव

यदि जीव-सृष्टि का क्रमिक विकास ही सत्य है तो प्रश्न उठता है कि मानव के बाद क्या? व कौन? यद्यपि अध्यात्म व वैदिक-विज्ञान जब यह कहता है कि मानव, सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ तत्व है, जो धर्म अर्थ काम व मोक्ष –चारों पुरुषार्थ में सक्षम है, तो संकेत मिलता है कि मानव अन्तिम सोपान है; हां इससे आगे युगों–सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग व कल्प, मन्वन्तर आदि—के वर्णन से स्वयम मानव के ही पुनः पुनः सदगुणों, विचारों, भावनाओं, संवेदनाओं आदि में अधिकाधिक श्रेष्ठ होते जाने के विकास-क्रम का भी संकेत प्राप्त होता है, अविकसित मानव से मानव & महामानव तक।

विज्ञान के अनुसार विकास की बात करें तो आज आधुनिक विज्ञान व तकनीक शास्त्र के महाविकास ने मानव के हाथ में असीम सत्ता सौंप दी है। वह चांद पर अपने पदचिन्ह छोडकर, अपने कदम मंगल, शुक्र आदि अन्य ग्रहों की ओर बढा चुका है। उसने हाल ही में जल से युक्त अन्य ग्रह भी खोज निकाला है एवम अब शायद जीवन युक्त ग्रह की खोज भी दूर नहीं है। यह एक अहम विजय है। वह शरीर में गुर्दे, फ़ेंफ़डे, यकृत, ह्रदय आदि बदलने में सफ़ल हुआ है व महान संहारक रोगों पर भी विजय पाई है। हां, इन सफ़लताओं के साथ उसने अणु-शस्त्र, रासायनिक व विषाणु बम भी बनाये हैं जो सारी मानव जाति व दुनिया को नष्ट करने में सक्षम हैं। इस प्रकार वह मानव जिसने मध्य युग में विश्व भर में अपने भाइयों के खून से हाथ रंगे थे, आज विज्ञान के सहयोग से प्रकृति-विजय का भागीरथ प्रयत्न कर रहा है। साथ ही आज विज्ञान- कथाओं, सीरिअल्स, सिनेमा आदि में, रोबोट, साइबोर्ग, मानव-पशुओं, विचित्र प्राणियों की कथाओं की कल्पना की जारही है जो मानव+पशु आदि की सृष्टि का सत्य भी बन सकती है। प्राणी-क्लोन की सफ़लता मानव-क्लोन में बदलकर शायद भविष्य की मानवेतर-सृष्टि का, विकास-क्रम हो सकती है। यद्यपि यह सभी मानवेतर-सृष्टि वैदिक-विज्ञान /भारतीय-साहित्य में पहले से ही वर्णित है। सृष्टा, ब्रह्मा का ही एक पुत्र–त्वष्टा ऋषि यज्ञ द्वारा इस प्रकार की प्राणी-सृष्टि की रचना करने लगा था—मानव का सिर+पशु का धड… आदि। इससे सामान्य सृष्टि के नियम व संचालन, संचरण में बाधा आने लगी थी। वे न प्राणी थे न मानव न देव अपितु दैत्य श्रेणी के थे।

त्रिशिरा नामक तीन सिर वाला प्राणी (देव=दैत्य=मानव) उसी त्वष्टा का पुत्र था जिसका इन्द्र ने बध किया, तदुपरान्त ब्रह्मा ने शाप द्वारा त्वष्टा का ऋषित्व (विद्या,ज्ञान)छीन लिया गया। शायद प्रकृति-माता को यह असंयमित विकास मन्जूर नहीं था, और आज भी नहीं होगा।

प्रश्न उठता है कि इस असीम सत्ता की विज्ञान रूपी कुन्जी को मानव के हाथ में सौंपने वाला कौन है ? क्या ईश्वर ?-जैसा अध्यात्म कहता है कि, सब का श्रोत वही है, पूर्ण, संपूर्ण, सत्य, सनातन, ऋत-सत्य – उसी से सब उत्पन्न होता है, उसी से आता है, उसी में जाता है, वह सदैव पूर्ण रहता है—- यथा-
“ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्ण्मुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥“
या अध्यात्म, या ज्ञान या आधुनिक विज्ञान या मानव-मन जो महाकाश है, अनंत शक्ति का भन्डार?
वस्तुतः विज्ञान के अनुसार वह है स्वयम मनुष्य का सर्वोत्तम विकसित मस्तिष्क—प्रमस्तिष्क(सेरीब्रम—cerebrum-उच्चमस्तिष्क), जिसने मानव को समस्त प्राणियों से सर्वोपरि बनाया है। प्रमस्तिष्क ही मानव मस्तिष्क में उच्च क्षमताओं, विद्वता, उच्च संवेदनाओं, प्रेरणाओं का केन्द्र है।

जिन कार्यों को सदियों से इंसानी करामात का नतीजा कहा जाता रहा है, वह मानव मस्तिष्क की ही देन है। अन्य जीवधारियों से अलग इंसानी दिमाग हर वक्त सूचनाएं बटोरना, उनकी पड़ताल के पश्चात उन्हें स्टोर करना एवं चुपचाप हमारे लिए चेतना और यथार्थ का एक संसार रचना इसी प्रमष्तिष्क का ही कार्य है | 10 खरब ब्रेन सेल्स जिस काम में लगे रहते हैं, उनके 90 फीसदी हिस्से की सक्रियता अवचेतन में होती है। हमारे सचेत मन को इसका पता नहीं होता क्योंकि बाकी दिमाग उससे सलाह ही नहीं लेता। अवचेतन में जमा यही जानकारियां कई बार दिमागी खेल को एक झटके से नया मोड़ दे देती है जिससे नए नए आविष्कारों व खोजों को जन्म मिलता है| अतः मानव सभ्यता के लिए सदियों से जो रहस्य अनसुलझे रहे हैं, उनमें एक से उसका सबसे करीबी रिश्ता है। वह है इंसान का अपना दिमाग, जिसकी कोशिकाओं में असंख्य गुत्थियां अनसुलझी पड़ी रहती हैं। जो काम आज के ताकतवर कंप्यूटर तक नहीं कर पाते, उसे कुछ इंसानी दिमाग कुछ पलों में कर डालते हैं। मौलिक सोच और नई रचना का सारा श्रेय इंसानी दिमाग में कैद इन्हीं रहस्यों को जाता है।

मूलतः मस्तिष्क की वृद्धि पर ही प्राणी या मनुष्य के संपूर्ण विकास का बल रहा है। भीमकाय प्राणियों के बृहत् शरीर की आवश्यकताओं को अपेक्षाकृत छोटा मस्तिष्क पूरा न कर सका और ये जंतु क्रमश: लुप्त होते गए। इसके प्रतिकूल मनुष्य में शरीर के अनुपात में अपेक्षाकृत मस्तिष्क कहीं बड़ा हो गया है, अतएव मनुष्य के मस्तिष्क की अधिकांश शक्ति शारीरिक आवश्यकताओं (भोजन, सुरक्षा आदि) को पूरा कर लेने के बाद भी शेष रह जाती है। यह शक्ति मनुष्य अपने सुख साधनों को एकत्रित करने तथा विज्ञान और तकनीकी उपलब्धियों को प्राप्त करने में लगा रहा है।

भविष्य में मनुष्य कैसा बनेगा? यह उसकी इच्छा और आवश्यकता को देखते हुए उसके मूल चिंतन की दिश व प्रवाह पर निर्भर करेगा |

आध्यात्मवादी चिंतन धारा मनुष्य में देवत्व और धरती पर स्वर्ग के अवतरण की पक्षधर है। प्रबुद्ध अध्यात्म भी अब मनुष्य जाति को विनाश के सर्वभक्षी संकट में से निकालने के लिए अपना कर्तव्य पालन करने के लिए कटिबद्ध हो रहा है। भले ही उसकी विशालकाय प्रयोगशालाएं दृष्टिगोचर न हों, पर निश्चेष्ट वह भी नहीं है। मनुष्य के ईश्वर कृत सनातन रूप को अक्षुण्ण और परिष्कृत बनाये रखने के लिए अध्यात्म शक्तियाँ भी दृश्य या अदृश्य रूप से अपना काम प्रचंड वेग से कर रही हैं। अध्यात्म शक्ति की तीव्र परिवर्तनों की गति उसे महामानव-देवमानव -अतिमानव भी बना सकती हैं। अपनी कृति “द ह्यूमन साईकिल” में महर्षि अरविंद ने कहा है कि मनुष्य सचेतन प्राणी है और चेतना का सहज स्वभाव महत् चेतना की ओर अग्रसर होने अति चेतन बनने का है। मनुष्य अपने विकास क्रम में जीव चेतना से ऊपर उठकर अर्ध देवता बन चुका है और अब पूर्ण देवत्व की ओर अग्रसर है। बौद्धिक विकास के बाद अब आत्मिक प्रगति का युग आ रहा है। मानव-जाति समान हितों के बाहरी कारणों को छोड़ कर आध्यात्मिक विकास के फलस्वरूप आँतरिक एकता का अनुभव करने लगी है। आर्थिक और बौद्धिक दृष्टिकोण के स्थान पर आध्यात्मिक और अतिमानसिक भावना बढ़ती जा रही है। यदि चिंतन की यही धारा चलाती रही व प्रभावी हुई तो भावी मनुष्य सुनिश्चित रूप से दिव्य-शक्तियों से संपन्न होगा जिसकी चेतना देव स्तर की होगी, जो इस धरती पर उदार आत्मीयता, स्नेह, सौजन्य और सहकार की अमृतधारा बहाने और स्वर्ग का वातावरण बना सकने में समर्थ होगा। यदि मानवी विवेक जग पड़ा तो संभावना इसी प्रकार की अधिक है। मानव से महामानव नर से नारायण बनना ही मनुष्य की नियति है।

यदि चिंतन का प्रवाह वर्तमान स्तर का भौतिकवादी ही बना रहा तो मानव नये सिरे से जीव-कोषों का ढालना आरंभ करेंगे जो हर परिस्थिति में अपना निर्वाह कर सकें भावी परिस्थितियों के साथ सुविधापूर्वक तालमेल बिठाये रह सकें। उसका शरीर ही नहीं मन भी बदला जा सके अब इतनी शक्ति विज्ञान के हाथों आ गयी है कि अन्न, वस्त्र, निवास आदि की कमी का ध्यान रखते हुए वर्तमान स्तर के मनुष्य को हटाकर उस स्थान पर नयी जाति के नयी नस्ल के मिनी मनुष्य भी बनाये जा सकते हैं जो कम जगह घेरे और खुराक भी नष्ट न करें, पर बुद्धिमता एवं प्रतिभा की दृष्टि से बढ़े चढ़े हों। बौद्धिक प्रखरता के बल पर वे बिजली, पवन आदि जैसी प्राकृतिक शक्तियों पर अपना आधिपत्य कर मनचाही दिशा में प्रगति कर सकेंगे। परन्तु उनमें भावनात्मक व अध्यात्मिक विकास कितना होगा यह एक प्रश्न चिन्ह है | अतः इनमें विकास के साथ ही विनाश के भी बीज निहित हैं। यह विद्वता व क्षमता जिसने मानव के हाथ में असीम शक्ति दी है, उसके स्वयम के लिये अभिशाप भी होसकती है, डिक्टेटरों व परमाणु-बम की भांति विनाश का कारण भी।

अतः एक तीसरी शक्ति ….प्रकृति—माता (जो अध्यात्म व दर्शन व वेदान्त के अनुसार ब्रह्म या ईश्वर की इच्छानुसार ही कार्य करती है एवं जो अपने पुत्र, मानव, की भांति क्रूर नहीं हो सकती, तथा मानव जाति को विनाश से बचाने हेतु सदा ही उसे अपनी आज्ञा पर, अपने अनुकूलन में सम्यग व्यवहार से चलाने का यत्न करती आई है) ने कदम बढाया है। यह कदम मानव-मस्तिष्क में एक एसे केन्द्र को विकसित करना है जो मानव को आज से भी अधिक विवेकशील सामाज़िक, सच्चरित्र, संयमित, विचारवान, संस्कारशील, व्यवहारशील व सही अर्थों में महामानव बनायेगा। वह केन्द्र है—प्रमस्तिष्क में विकसित भाग –बेसल नीओ कार्टेक्स (basal neo cortex)|

मानव के जटिल मस्तिष्क के तुलनात्मक अध्ययन व शोधों से ज्ञात हुआ है कि मछली में प्रमस्तिष्क केवल घ्राणेन्द्रिय तक सीमित है; रेंगने वाले (रेप्टाइल्स) जन्तुओं में बडा व विकसित; स्तनपायी जन्तुओं(चौपाये आदि मेमल्स) में वह पूर्ण विकसित है। इनमे प्रमस्तिष्क एक विशेष प्रकार की कोशिकाओं की पर्तों से बना होता है जिसे कोर्टेक्स (cortex) कहा जाता है। उच्चतम स्तनपायी मानव मस्तिष्क में ये पर्तें वहुत ही अधिक फ़ैली हुई व अधिकाधिक जटिलतम होती जातीं हैं; एवम बहुत ही अधिक वर्तुलित(folded) होकर बहुत ही अधिक स्थान घेरने लगती हैं।(चित्र-१. व २.)
बुद्धि, ज्ञान, उच्च-भावनाएं आदि प्रमस्तिष्क(सेरीब्रम या cerebral cortex) की इन्ही पर्तों की मात्रा पर आधारित होता है। मानव में यह भाग अपने प्रमस्तिष्क का २/३(सर्वाधिक) होता है और मनुष्य में सर्वाधिक ज्ञान व विवेक का कारण।

प्रो.ह्यूगो स्पेत्ज़ व मस्तिष्क विज्ञानी वान इलिओनाओ के अध्ययनो के अनुसार प्रमस्तिष्क के विकासमान भाग कंकाल-बक्स के आधार पर होते हैं, वे कंकाल के सतह पर अपने विकास के अनुसार छाप छोडते हैं इन्ही के अध्ययन से मस्तिष्क के विकासमान भागों का पता चलता है। इन वैज्ञानिकों के अध्ययनो से से पता चलता है कि मानव मस्तिष्क अभी अपूर्ण है तथा मानव के प्रमस्तिष्क के आधार भाग में एक नवीन भाग (केन्द्र) विकसित होरहा है जो मानव द्वारा प्राप्त उच्च मानसिक अनुभवों, संवेगों, विचारों व कार्यों का आधार होगा। यह नवीन विकासमान भाग प्रमस्तिष्क के अग्र व टेम्पोरल भागों के नीचे कंकाल बक्स(क्रेनियम-cranium) के आधार पर स्थित है। इसी को बेसल नीओ कार्टेक्स (basal neo cortex) कहते हैं। प्राइमरी होमो-सेपियन्स (प्रीमिटिव मानव) में यह भाग विकास की कडी के अन्तिम सोपान पर ही दिखाई देता है व भ्रूण के विकास की अन्तिम अवस्था में बनता है। पूर्ण मानव कंकाल में यह गहरी छाप छोडता है। बेसल-नीओ-कार्टेक्स के दोनों भागों को निकाल देने या छेड देने पर केवल मनुष्य के चरित्र व मानसिक विकास पर प्रभाव पडता है, अन्य किसी अंग व इन्द्रिय पर नहीं। अतः यह चरित्र व भावना का केन्द्र है।

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि भविष्य में इस नवीन केन्द्र के और अधिकाधिक विकसित होने से एक महामानव (यदि हम स्वयम मानव बने रहें तो) का विकास होगा (इसे महर्षि अरविन्द के अति-मानस की विचार धारा से तादाम्य किया जा सकता है); जो चरित्र व व्यक्तित्व मे मानवीय कमज़ोरियों से ऊपर होगा, आत्म संयम व मानवीयता को समझेगा, मानवीय व सामाज़िक संबंधों मे कुशल होगा और भविष्य में मानवीय भावनाओं के विकास के महत्व को समझेगा।

अतः मानव मस्तिष्क के इस नव-विकसित भाग का ज्ञान अत्यन्त महत्वपूर्ण है क्योकि यह निम्न स्तर के व्यक्तियों के हाथों मे असीम शक्ति पड जाने से उत्पन्न, मानव जाति के अंधकारमय भविष्य के लिये एक आशा की किरण है। इस अंतरिक्ष विकास, अणु शस्त्रों के युग, पर्यावरण-प्रकृति विनाश व विनाशकारी अन्धी दौड व होड के युग में भी मानव जाति के जीवित रहने का संदेश है। विज्ञान की यह देन भी वस्तुतः प्रकृति मां का जुगाड है, अपने पुत्र मानव को स्वयं-विनाश से बचाने हेतु एवम त्वष्टाओं को शक्तिहीन करने हेतु।

डॉ. श्याम गुप्त

नाम-- डा श्याम गुप्त जन्म---१० नवम्बर, १९४४ ई. पिता—स्व.श्री जगन्नाथ प्रसाद गुप्ता, माता—स्व.श्रीमती रामभेजीदेवी, पत्नी—सुषमा गुप्ता,एम्ए (हि.) जन्म स्थान—मिढाकुर, जि. आगरा, उ.प्र. . भारत शिक्षा—एम.बी.,बी.एस., एम.एस.(शल्य) व्यवसाय- डा एस बी गुप्ता एम् बी बी एस, एम् एस ( शल्य) , चिकित्सक (शल्य)-उ.रे.चिकित्सालय, लखनऊ से वरिष्ठ चिकित्सा अधीक्षक पद से सेवा निवृत । साहित्यिक गतिविधियां-विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं से संबद्ध, काव्य की सभी विधाओं—गीत, अगीत, गद्य निबंध, कथा, आलेख , समीक्षा आदि में लेखन। इन्टर्नेट पत्रिकाओं में लेखन प्रकाशित कृतियाँ -- १. काव्य दूत, २. काव्य निर्झरिणी ३. काव्य मुक्तामृत (काव्य सन्ग्रह) ४. सृष्टि –अगीत विधा महाकाव्य ५.प्रेम काव्य-गीति विधा महाकाव्य ६. शूर्पणखा महाकाव्य, ७. इन्द्रधनुष उपन्यास..८. अगीत साहित्य दर्पण..अगीत कविता का छंद विधान ..९.ब्रज बांसुरी ..ब्रज भाषा में विभिन्न काव्य विधाओं की रचनाओं का संग्रह ... शीघ्र प्रकाश्य- तुम तुम और तुम (गीत-सन्ग्रह), व गज़ल सन्ग्रह, कथा संग्रह । मेरे ब्लोग्स( इन्टर्नेट-चिट्ठे)—श्याम स्मृति (http://shyamthot.blogspot.com) , साहित्य श्याम (http://saahityshyam.blogspot.com) , अगीतायन, हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान, छिद्रान्वेषी एवं http://vijaanaati-vijaanaati-science सम्मान आदि—१.न.रा.का.स.,राजभाषा विभाग,(उ प्र) द्वारा राजभाषा सम्मान,(काव्यदूत व काव्य-निर्झरिणी हेतु). २.अभियान जबलपुर संस्था (म.प्र.) द्वारा हिन्दी भूषण सम्मान( महाकाव्य ‘सृष्टि’ हेतु ३.विन्ध्यवासिनी हिन्दी विकास संस्थान, नई दिल्ली द्वारा बावा दीप सिन्घ स्मृति सम्मान, ४. अ.भा.अगीत परिषद द्वारा अगीत-विधा महाकाव्य सम्मान(महाकाव्य सृष्टि हेतु) ५.’सृजन’’ संस्था लखनऊ द्वारा महाकवि सम्मान एवं सृजन-साधना वरिष्ठ कवि सम्मान. ६.शिक्षा साहित्य व कला विकास समिति,श्रावस्ती द्वारा श्री ब्रज बहादुर पांडे स्मृति सम्मान ७.अ.भा.साहित्य संगम, उदयपुर द्वारा राष्ट्रीय प्रतिभा सम्मान ( शूर्पणखा-काव्य-उपन्यास हेतु)८ .बिसारिया शिक्षा एवं सेवा समिति, लखनऊ द्वारा ‘अमृत-पुत्र पदक ९. कर्नाटक हिन्दी प्रचार समिति, बेंगालूरू द्वारा सारस्वत सम्मान(इन्द्रधनुष –उपन्यास हेतु) १०..विश्व हिन्दी साहित्य सेवा संस्थान,इलाहाबाद द्वारा ‘विहिसा-अलंकरण’-२०१२....आदि..