कविता

टूट जाते हैं लोग

सुना है टूट जातें हैं लोग अकड जाने के बाद
दरक जाता है आइना इक चोट खाने के बाद
बदल देते है लोग अपना घर भुतहा समझकर
बदल जाती हैं राहें खुदबखुद ठोकरें खाने के बाद ||

पर आज कुछ अलग ही आलम है जमाने का
हकीकत से दूर है अंजाम दिखने-दिखाने का
इसी मोहल्ले से मिले इसके जख्म तो देखों
आज डाली पर लटकी है शर्मिंदाहोने के बाद ||

इसी मिट्टीमें खेला करती थी रोज खुले बदन
चहकती हुयी घर की बाँहों में अपने ही आंगन
कपड़ा पहनाया इक माँ ने पुचकार कर जिसको
सरेआम बेपर्दा हों गयी खूब छटपटाने के बाद ||

सन्न है कुछ लोंग बाग में घिनौना झूला पाकर
सावन की कजरी के गले में बेहयाई लटकाकर
झूल रही है घर की अस्मत पुरुषों के सामने
हुआ था महाभारत नियति के मर जाने के बाद ||

होड लगी है सूबे में रोज नए रिकार्ड बनाने की
कभी मिडिया तो कभी घर वालों को धमकाने की
कमनसीब अपने घर के दीवारों की दहशत तो देख
मासूमियत कुम्हला गयी है उसके मर जाने के बाद ||

— महातम मिश्र

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ