आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 29)
ड्राइवर रवीन्द्र सिहं
फिर हमने एक रवीन्द्र सिंह नाम के ड्राइवर को रखा, जो मोना सिख था। वह पहले से मेरा परिचित था, क्योंकि जब मैं पंचकूला आया था, तो वह हमारे ही संस्थान में गार्ड का कार्य करता था। एक दिन किसी बात पर नाराज होकर गौड़ साहब ने उसको निकलवा दिया। तब से वह बेरोजगार था। वैसे वह बहुत ही अच्छा था। वह पास के एक गाँव में रहता था और वहाँ से बस में आता था। हम उसे केवल 2 हजार रुपये महीने ही दे पाते थे, परन्तु वह इसी में संतुष्ट रहता था। वह मेरे आॅफिस जाने के समय से पहले ही आ जाता था और मुझे आॅफिस लेकर जाता था। फिर शाम को मुझे आॅफिस से घर छोड़कर अपने गाँव जाता था।
सबसे पहले मैंने और दीपांक ने उससे कार चलाना सीखा। आश्चर्य कि दीपांक मात्र एक सप्ताह में ही कार अच्छी तरह चलाने लग गया। मैंने भी लगभग 2 सप्ताह में काम चलाऊ कार चलाना सीख लिया। श्रीमतीजी कार चलाना पहले से जानती थीं, उनके पास ड्राइविंग लाइसेंस भी था, लेकिन अभ्यास छूट गया था। शीघ्र ही उनको भी अभ्यास हो गया। इस प्रकार रवीन्द्र ने हम सबको कार चलाना सिखा दिया। मैं आॅफिस जाते समय प्रायः स्वयं कार चलाकर ले जाता था और उसी तरह वापस ले आता था। रवीन्द्र मेरे पास ही आगे वाली सीट पर बैठा रहता था और आवश्यक होने पर बताता था कि क्या करना है।
हमारा विचार पहले उसको केवल 2 महीने रखने का था। परन्तु आराम को देखते हुए हमने उसे 6 माह रखा। फिर हमें लगा कि उसको मिलने वाला वेतन बहुत कम है और हमारी हैसियत इससे अधिक देने की नहीं थी, इसलिए हमने बगल में रहने वाले डा. चड्ढा के आॅफिस में उसको ड्राइवर लगवा दिया, जहाँ उसे 3500 रु. वेतन मिलता था। वहाँ उसने केवल दो माह काम किया। उसका वेतन और काम का समय सभी ठीक था। बाहरी नगरों में गाड़ी ले जाने पर भी उसे कोई आपत्ति नहीं थी। लेकिन डा. चड्ढा उसको मुर्गियाँ देकर इधर-उधर भेजते थे। यही बात उसको पसन्द नहीं थी। इस कारण केवल 2 माह बाद उसने डा. चड्ढा का काम छोड़ दिया। बाद में उसे किसी अन्य कम्पनी में कार या ट्रक चलाने का काम मिल गया।
बीच-बीच में हमारी उससे मुलाकात हो जाती थी। कई बार किसी दूसरे शहर में जाने की आवश्यकता होने पर हम उसे बुला लेते थे और अगर वह खाली होता था, तो मना नहीं करता था। वह बहुत अच्छा ड्राइवर था। एक बार हम उसके साथ अमृतसर भी घूमने गये थे। चंडीगढ़ और आस-पास के सारे स्थान हमने उसके साथ जाकर देख लिये थे। एक बार तो हम उसे आगरा भी ले गये थे।
चंडीगढ़ के बारे में
चंडीगढ़ अपनी तरह का एक ही शहर है। यह पंजाब और हरियाणा दो राज्यों की राजधानी तो है ही, स्वयं केन्द्र शासित क्षेत्र भी है। इस प्रकार यह दुनिया का शायद अकेला शहर है, जहाँ तीन-तीन राजधानियाँ हैं। यह बहुत ही अनुशासित तरीके से बसाया गया है। चौड़ी-चौड़ी साफ-सुथरी सड़कें, गन्दगी नाम को भी नहीं। दुकानें केवल निर्धारित स्थानों पर। सड़कों के किनारे बनी हुई पुराने जमाने की आरामदायक कोठियाँ, बड़ी-बड़ी दुकानें। कुल मिलाकर अच्छे शहरों में भी सबसे अच्छा शहर चंडीगढ़ कहा जा सकता है।
वहाँ देखने लायक मुख्य स्थान राॅक गार्डन है, जो एक कलाकार श्री नेकचन्द की मेहनत का परिणाम है। उन्होंने पहाड़ी जंगलों में सुनसान स्थान पर पत्थरों को तराश कर कलाकृतियों का रूप दिया था। इस कार्य में उन्होंने अपने 30 वर्ष लगा दिये थे। बाद में उसको पिकनिक जैसे स्थान का रूप दिया गया। पत्थरों और कबाड़ से बनायी गयी कलाकृतियाँ देखने लायक हैं। दो कृत्रिम झरने भी हैं। यह संसार में अपनी तरह का अकेला ही स्थान है। इसको देखने भारी संख्या में देशी और विदेशी पर्यटक आते हैं।
सबसे पहले हम इसको देखने गये, तो देखकर आश्चर्यचकित रह गये थे। बाद में अनेक बार जाने का मौका मिला। कोई रिश्तेदार आता था, तो हम उसे राॅक गार्डन जरूर दिखाते थे। इसमें मात्र 10 रुपये की टिकट लगती है, जिससे इसकी सुरक्षा का खर्च भी शायद ही निकल पाता हो।
राॅक गार्डन से लगभग 1 किमी दूर सुखना लेक है। यह एक कृत्रिम झील है। पता चला कि पहले पहाड़ों से आने वाला बरसात का पानी शहर में घुस जाता था और तबाही मचाता था। इसलिए शहर की तरफ से बाँध बनाकर पानी को रोका गया है। इससे एक झील बन गयी है। झील के पानी का उपयोग सिंचाई के लिए किया जाता है। इसमें पानी की मात्रा घटती-बढ़ती रहती है। इसमें पैडल बोट भी चलती हैं, जो मामूली किराये पर उपलब्ध हैं। आस-पास हरियाली भरे स्थान हैं और बाँध पर लगभग 2 किमी लम्बा टहलने का कच्चा रास्ता बना हुआ है। एक बार मैं और गौड़ साहब इस रास्ते पर टहलते हुए झील के दूसरे छोर पर पहुँच गये थे। फिर वहाँ एक घंटा बैठकर लौटे थे।
सुखना पर टहलना और बोटिंग करना हमें बहुत पसन्द था। जब मैं बोट चलाता था, तो काफी दूर तक ले जाता था, जहाँ तक ले जाने की अनुमति है।
सुखना लेक पर नुक्कड़ नाटक, नृत्य, गीत आदि सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होते रहते हैं। वहाँ हर मौसम में लगभग रोज ही शाम को भारी भीड़ होती है।
चंडीगढ़ का तीसरा आकर्षण है यहाँ का रोज गार्डन। इसमें गुलाब के हजारों तरह के फूलों की क्यारियाँ हैं। कहा जाता है कि यह एशिया का दूसरा सबसे बड़ा रोज गार्डन है। (पहला सबसे बड़ा रोज गार्डन दिल्ली के राष्ट्रपति भवन के बाग को माना जाता है।) रोज गार्डन सेक्टर 16 में सेक्टर 17 से लगभग सटा हुआ है और आकार में काफी बड़ा है। इसमें कोई टिकट नहीं लगती, इसलिए पूरे वर्ष दिनभर और देर रात तक यहाँ भीड़ लगी रहती है। मुझे इसमें घूमने में बहुत आनन्द आता था। परन्तु जाने का मौका कम ही मिलता था, क्योंकि पंचकूला से बहुत दूर था। इसमें साल में एक बार फूलों की प्रदर्शनी होती है, जो देखने लायक होती है। अच्छे फूलों और सजावटों को पुरस्कार भी दिये जाते हैं। इस प्रदर्शनी में भी बहुत भीड़ होती है।
चंडीगढ़ में इसके अलावा और भी कई आकर्षण हैं, परन्तु हमें उनको देखने का अवसर नहीं मिला। चंडीगढ़ से लगभग 6-7 किमी दूर छतबीड़ नामक चिड़ियाघर है। एक बार मैं रवीन्द्र के साथ बच्चों को वहाँ घुमाने ले गया था। हालांकि वहाँ जानवर अधिक नहीं है, लेकिन चिड़ियाघर काफी बड़ा है।
यों तो चंडीगढ़ के प्रत्येक सेक्टर में अच्छे मार्केट हैं, लेकिन उसका सबसे बड़ा और आकर्षक बाजार सेक्टर 17 में है। उसे चंडीगढ़ का कनाट प्लेस कहा जा सकता है। परन्तु वहाँ वस्तुओं की कीमतें बहुत अधिक हैं, इसलिए कुछ खरीदने की हिम्मत नहीं होती थी। कभी-कभी किताबें लेने या केवल घूमने हम प्रायः वहाँ जाया करते थे। सेक्टर 17 में ही हमारे बैंक का मंडलीय कार्यालय है। कभी-कभी मैं वहाँ भी जाता था।
चंडीगढ़ यों तो चंडीदेवी के नाम पर बसाया गया है। वहाँ चंडीदेवी का मन्दिर भी है, परन्तु वह शहर से काफी दूर कैंट एरिया में है। इसलिए बहुत कम लोग वहाँ जाते हैं।
वास्तव में वहाँ का सबसे बड़ा मन्दिर मंसा देवी का है, जो पंचकूला में पड़ता है। सारे चंडीगढ़ और पंचकूला के लोग वहीं जाते हैं। वहाँ रोज बहुत भीड़ रहती है। कई बार घंटों लाइन में लगना पड़ता है। यों तो मैं मूर्तिपूजा नहीं करता, परन्तु परिवार के साथ वहाँ चला जाता था। वहाँ रोज लंगर भी चलता है। हम लगभग हर बार लंगर में प्रसाद पाते थे। एक बार हमारे मकान मालिक ने लंगर कराया था, तब हम पूरे दिन वहाँ रहे थे। मैंने अपने हाथ से घंटों तक प्रसाद बाँटा था, जिसमें मुझे बहुत सन्तोष मिला। प्रसाद में ज्यादातर कढ़ी-चावल होते हैं। कभी-कभी रोटी, सब्जी और कढ़ी की जगह दाल होती है। साथ में मीठा हलवा भी होता है। एक बार स्वयं हमने भी लंगर कराया था।
मंसादेवी में बहुत अच्छी व्यवस्था है। इस कारण भारी भीड़ होने पर भी कोई अव्यवस्था या असुविधा नहीं होती। मंसादेवी के पास ही पटियाला के महाराजा का बनवाया हुआ एक मन्दिर है। हम वहाँ भी जाते थे। उसके पास भी एक लंगर अलग से चलता है।
विजय भाई ,आज की किश्त भी बहुत अच्छी लगी और चंडीगढ़ की सैर हो गई .जब मैंने १९६७ में देखा था तो मुझे तो उस वक्त भी अच्छा लगा था लेकिन अब तो बहुत बडीया हो गिया है . रॉक गार्डन मैंने सुना तो है लेकिन देखा नहीं . रोज़ गार्डन तो सुन कर ही मनमोहक लगा .
सच में भाई साहब, चंडीगढ़ शहर देखने ही नहीं रहने लायक है. हालाँकि थोडा मंहगा है. ऐसा ही पंचकूला भी है.
रोचकता से भरपूर आज की क़िस्त पढ़ी। ड्राईवर रवीन्द्र के गुणों को पढ़कर व आप द्वारा उसकी सहायता करने सम्बन्धी बातों से आपके विचारों को जानने का पुनः अवसर मिला। चंडीगढ़ के पर्यटक स्थानों के नाम भी जाने। अच्छा लगा। धार्मिक स्थानों की जानकारी से भी प्रसन्नता हुई। आज की क़िस्त पढ़कर बहुत अच्छा लगा। हार्दिक धन्यवाद।
बहुत बहुत आभार, मान्यवर !