कविता
मैं
निरन्तर
टूट टूटकर , फिर
जुड़ने वाली
वह चट्टान हूँ
जो जितनी बार टूटती है
जुड़ने से पहले
उतनी ही बार
अपने भीतर
कुछ नया समेट लेती है
में चाहती हूँ
की
तुम मुझे
बार -बार तोड़ते रहो
और
में फिर जुड़ती रहूँ !!
मैं
निरन्तर
टूट टूटकर , फिर
जुड़ने वाली
वह चट्टान हूँ
जो जितनी बार टूटती है
जुड़ने से पहले
उतनी ही बार
अपने भीतर
कुछ नया समेट लेती है
में चाहती हूँ
की
तुम मुझे
बार -बार तोड़ते रहो
और
में फिर जुड़ती रहूँ !!
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वाह वाह ,किया बात है ,बहुत खूब .