तुमने देखा है क्या कभी खाली कटोरे में बसंत उतरता हुआ ? नही — तो देखो इस गंगा के पानी को जो अविराम बहता है इस छोर से उस छोर तक देखो उस शिवालय को जो पूजा जाता है अपने निर्गुण रूप में देखो उस बाती को जो जलती है , हवा के खिलाफ जाकर […]
Author: डॉली अग्रवाल
कविता
कविता के चंद शब्दो से गजलों के कुछ मिसरों से कहानी के किरदारों से रोटी नही पकती — तन को झोंकना पड़ता है पसीने को बहाना पड़ता है मन को मारना पड़ता है दो वक्त की रोटी के लिए — वक्त पर पैबंद लगा कर धूप का आँचल ओढ़ कर नजरो को झुका कर गेहूँ […]
उम्र
उम्र उतार फेक देती है औरत जब बंदिशों का बोझ बढ़ जाता है जब खुद का वजूद खत्म होने लगता है पहचान सिमट जाती किसी के नाम के साथ तब बागी बन उम्र उतार फेंकती है खोई ख्वाहिशों को नींद से जगा चल देती है उस सफर पर — जहाँ कोई मंजिल नही होती ज़िद […]
दस्तक
हा ऊंघती सी दोपहर मे कोई देर तक खटखटा रहा था देह को मेरी ओर मैं अलसायी सी ….. खुद को समेटे हुए आंखों के कटोरों को बन्द करे पड़ी रही देर तलक अनसुना करती रही आवाज तेज़ हुई तो , उठ बैठी तो सामने मन को देखा जो पसीने से लथपथ लम्बी साँसे ले […]
परित्यक्ता
जूड़े में टाँक लिया करती हु अपनी बेबसी , अपने दर्द और टूटी उम्मीदें रबड़ से अच्छी तरह बांध कर बालो में सब पिरो कर पिन से टाँक देती हु कुछ लम्हो के लिये पर नही रख पाती ज्यादा देर तक क्योकि —- हथौड़े की तरह वार करती है वो वहाँ भी घबरा कर आज़ाद […]
कविता
ज़िंदगी मुझे समझा रही थी फर्क …… अपनो ओर परायों में ओर उलझी हुई में झुक रही थी परायों के बीच क्यो ?? शायद वास्तविकता जीते जीते कल्पनाएं ज्यादा सजीव लगने लगी थी ! लेकिन झकझोर दिया अस्तित्व को जब भावनाओ की बोली लगाई गई थी ओर मन क्षुब्ध था दोस्ती और प्रेम के बीच […]
कविता
ज़िंदगी मुझे समझा रही थी फर्क अपनो ओर परायों में ओर उलझी हुई में झुक रही थी परायों के बीच क्यो ?? शायद वास्तविकता जीते जीते कल्पनाएं ज्यादा सजीव लगने लगी थी लेकिन झकझोर दिया अस्तित्व को जब भावनाओ की बोली लगाई गई थी ओर मन क्षुब्ध था दोस्ती और प्रेम के बीच मन सिमट कर […]
कविता
रोज एक दिन नया खरीद लेती हूं शाम बेचकर रात भर उसमें जाने कितने रंग भरती हूं फिर उतार देती हूं उसे आंखों में ओर पलकें कस कर बन्द कर लेती हूं इस डर से की रंग कही फैल ना जाये पलकों के चिलमन को धीरे धीरे खोलकर होंठो पर मुस्कुराहट लिए देखती हूं तो […]
मुखोटा
मुझे मुखोटा ओढ़ जीना आ गया बिन हँसी के हँसना आ गया ये लो दोस्तों मुझे भी – इंसान बनना आ गया ! आँखे भरी है बहती नहीं , दर्द है चीख आती नहीं , हँसी है , पर होंठो पर आती नहीं मेरी ख़ामोशी मेरा रूप बन गया … मुझे भी इस गुमनाम से […]
झुठलाते से एहसास
कल रात तुम आये थे! कितना असहज सी हो गयी थी, पल दो पल को ! जानती हूं जरूर कोई वजह रही होगी ! पूछुंगी तो कहोगे नही , इसलिए चुप रही ! एक कप चाय पी कर जाने को उठे तो छिपा नही सके चश्मे के पीछे छिपी बोझिल सी आँखों को ओर मैं […]