रहा गन्तव्य सबका एक !
रहा गन्तव्य सबका एक, प्रश्न करते अनेकानेक;
बहे बूँदों सरिस धारा, रहे फिर भी मनोहारा !
बहे बूँदों सरिस धारा, रहे फिर भी मनोहारा !
समय की धार सब चलते, विवश मन विश्व में रहते;
प्रयोगित बुद्धि बल करते, विवेकी कहाँ हो पाते !
राह बस पूछते जाते, लिखा रास्ता कहाँ पढ़ते;
देख हम-सफ़र कब पाते, चला जो आगे ना लखते !
बूँद वत कहाँ बह पाते, उछलना कूदना चहते;
समझते अलग औरों से, विलय हो धार कब बहते !
चले सब वहीं हैं जाते, पूछ संस्कार वत जाते;
रहा उत्तर ‘मधु’ का एक, फिरा जग खोजता प्रभु एक !
रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’
टोरोंटो, ओंटारियो, कनाडा
बहुत अच्छी कविता है .