आत्मकथा

आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 30)

शाखा का हाल

पंचकूला में संघ कार्य अच्छा होता है। स्वयंसेवकों की एक बड़ी संख्या है, जिनमें लगभग सभी खाते-पीते परिवारों के हैं। प्रारम्भ में मेरा किसी स्वयंसेवक से कोई परिचय नहीं था, जैसा कि स्वाभाविक है, क्योंकि पंचकूला मैं पहली बार गया था। मेरे पास केवल चंडीगढ़ के संघ कार्यालय का पता था, जो सेक्टर 18-सी में है। वहीं विश्व संवाद केन्द्र भी चलता है। मुझे उसी का सन्दर्भ कानपुर विश्व संवाद केन्द्र के प्रभारी मा. राजेन्द्र जी सक्सेना ने दिया था। संघ से अपना सम्पर्क बनाने की दृष्टि से एक दिन रविवार को मैं सिटी बस से चंडीगढ़ गया। तब तक मेरा परिवार नहीं आया था, इसलिए जाने में कोई बाधा नहीं थी। थोड़ी पूछताछ के बाद मैं सही जगह पहुँच गया। वहाँ विश्व संवाद केन्द्र के प्रभारी थे श्री प्यारा लाल जी। उनसे परिचय हुआ। उनके साथ ही दोपहर का भोजन भी हुआ। उन्होंने बताया कि संघ कार्य की दृष्टि से चंडीगढ़ और पंचकूला अलग-अलग हैं। उन्होंने मुझे पंचकूला के संघ कार्यालय का पता दिया, जो सेक्टर 9 में एक किराये के मकान में था।

इसके अगले दिन प्रातःकाल मैं पैदल ही सेक्टर 9 गया और थोड़ा भटकने के बाद संघ कार्यालय पहुँच गया। वहाँ विभाग प्रचारक मा. जितेन्द्र जी और पंचकूला नगर कार्यवाह मा. गोपालकृष्णन जी से मेरा परिचय हुआ। गोपालकृष्णन जी टाइम्स आॅफ इंडिया अखबार में सर्कुलेशन मैनेजर हैं और जैसा कि नाम से स्पष्ट है दक्षिण भारतीय हैं। वे हिन्दी समझ तो लेते हैं, बोल भी लेते हैं, लेकिन लिख नहीं पाते, कुछ-कुछ पढ़ लेते हैं। वे काफी सक्रिय रहते हैं और इसी कारण उन्हें नगर कार्यवाह जैसा महत्वपूर्ण दायित्व दिया गया है। वे स्वयंसेवकों में गोपालन जी के नाम से विख्यात हैं। बहुत स्नेही सज्जन हैं। मुझे तो पहली नजर में ही ऐसे लगे जैसे मैं उन्हें वर्षों से जानता हूँ। उन्होंने मुझे जलपान भी कराया, जो बाहर से आये कुछ कार्यकर्ताओं के लिए बनवाया गया था। गोपालन जी ने बताया कि एक शाखा हमारे ही सेक्टर 12-ए में मकान नं. 320 के सामने वाले पार्क में लगती है और श्री सुशील कुमार जी उसके कार्यवाह हैं।

अगले दिन ही मैं उस पार्क में पहुँच गया। वहाँ शाखा का कोई चिह्न नहीं था, न कोई ध्वज और न कोई नेकरधारी व्यक्ति। केवल एक किनारे पर तीन-चार लोग बैठे बातें कर रहे थे। मैंने उनसे पूछा कि क्या यहाँ शाखा लग रही है? उन्होेंने कहा- हाँ। मैंने कहा- ध्वज कहाँ है? तो उन्होंने एक ईंट की ओर इशारा करके कहा कि यही ध्वज है। मैंने पूछा- सुशील जी कौन हैं? तो उनमें से एक ने बताया कि मैं सुशील कुमार हूँ। मैंने संघ की पद्धति से ध्वज प्रणाम किया और फिर कार्यवाह को भी, जैसी कि परम्परा है। फिर सबसे परिचय हुआ। मेरी सुनने की कठिनाई जानकर वे सब दुःखी हुए, लेकिन मुझसे मिलकर बहुत प्रसन्न हुए।

फिर मैं नियमित शाखा जाने लगा। धीरे-धीरे पंचकूला के लगभग सभी स्वयंसेवकों से मेरा परिचय हो गया। एक शाखा पास के सेक्टर 11 में लगती थी, जो अधिक नियमित थी। वहाँ के कई स्वयंसेवकों से मेरी घनिष्टता हो गयी। हमारी शाखा के कार्यवाह सुशील जी एक ग्रामीण बैंक में अधिकारी थे। मुख्य शिक्षक थे श्री प्रह्लाद जी, जो बद्दी (हि.प्र.) में एक दवा कम्पनी में कार्य करते थे। वे रोज अपनी कम्पनी की बस से आते-जाते थे। इनके अलावा सर्वश्री सुरेन्द्र जी, मुनीश जी, धर्मपाल जी, सुखदेव जी कपूर, सत्य प्रकाश जी (लालाजी), विनोद जी आदि अनेक स्वयंसेवक उस शाखा में आते थे। हमारी शाखा नियमित लगती थी, क्योंकि मैं अवश्य आ जाता था। बाद में ध्वज लगाना भी प्रारम्भ कर दिया। पास में रैली गाँव था, जिसमें सुरेन्द्र जी और विनोद जी रहते थे।

लालाजी श्री सत्य प्रकाश अग्रवाल लगभग 75 वर्ष के थे। साधारण स्वास्थ्य, लेकिन बहुत सक्रिय थे। वे शाखा कार्य तो कम ही करते थे, लेकिन राम-नाम लिखी पुस्तिकाएँ बाँटने और एकत्र करने का कार्य पूरी निष्ठा से करते थे। उनके पुत्र किसी बैंक में मैनेजर थे। बाद में उनका स्थानांतरण हो जाने पर लालाजी भी उनके साथ पटियाला चले गये। वे मुझे बहुत स्नेह करते थे।

हमारे जिला कार्यवाह थे श्री राम अवतार जी सिंघल। वे पेण्ट-हार्डवेयर आदि की दुकान करते थे। आर्थिक स्थिति बस ठीक थी, लेकिन बहुत ही निष्ठावान स्वयंसेवक थे। हर कार्यक्रम में समय से पहुँचकर व्यवस्था सँभाल लेते थे। वे भी मुझसे बहुत ही स्नेह करते थे।

हमारी शाखा नियमित लग रही थी। लगभग 2 साल तक लगने के बाद सुशील जी ने पास में ही ढकौली गाँव में अपना मकान बना लिया, इसलिए वे शाखा में अनियमित हो गये। फिर मुनीश जी भी किसी दूसरे सेक्टर में चले गये। प्रह्लाद जी अपने कार्यालय जल्दी जाने लगे। फिर लालाजी भी चले गये। इस कारण शाखा अनियमित हो गयी। काफी दिनों तक केवल एक-दो लोग ही शाखा आते रहे। बाद में मैंने अपने संस्थान में योग सिखाना प्रारम्भ कर दिया, तो मैं भी शाखा नहीं जा पाता था, लेकिन संघ से मेरा सम्पर्क लगातार बना रहा। लगभग सभी प्रमुख कार्यक्रमों में मैं शामिल होता था और शहर से बाहर भी जाता था। एक बार हमारा एकत्रीकरण पिंजौर के पास घग्घर नदी पर बने हुए पुल के नीचे एक द्वीप जैसे सूखे स्थान में हुआ था। कई बार वनविहार का कार्यक्रम भी हुआ था।

पिंजौर

पंचकूला से लगभग 14 किमी दूर कालका-शिमला के रास्ते पर एक पिंजौर नामक स्थान है। वहाँ एक बहुत सुन्दर बाग है, जो कहा जाता है कि कभी पटियाला के महाराजा ने बनवाया था। वास्तव में वे महाराजा साहब अंग्रेजों के चमचे थे। वे शिमला आते-जाते समय रास्ते में मौज-मस्ती के लिए पिंजौर में रुकते थे। वहीं उन्होंने अपने लिए वह बाग बनवाया था।

इसकी विशेषता यह है कि इसमें सीढ़ी जैसे सात तल हैं, ठीक वैसे ही जैसे मैसूर के वृन्दावन गार्डन में हैं। इन सभी तलों के बीच में से एक कृत्रिम नहर बहती है, जिसमें प्रायः फव्वारे भी चलते हैं। इस गार्डन में चारों ओर फलों के पेड़ हैं, जैसे अमरूद, नाशपाती, चीकू, आड़ू, आम, आलू बुखारा, सन्तरा, मौसमी आदि। परन्तु किसी को फल तोड़ने की अनुमति नहीं है। उन पर रात-दिन पहरा रहता है। वहाँ एक नर्सरी भी है, जहाँ हर तरह के पौधे मिलते हैं। वैसे तो फल भी बिकते हैं, परन्तु उनकी कीमत प्रायः बाजार से भी अधिक होती है।

पिंजौर गार्डन में प्रकाश की अच्छी व्यवस्था है। रात्रि को प्रकाश में गार्डन बहुत सुन्दर लगता है। हम प्रायः दिन में शाम के समय जाते थे और अंधेरा होने पर या उससे पहले ही लौट आते थे। इसका कारण यह था कि रात में पिंजौर से पंचकूला तक की सड़क बहुत खतरनाक हो जाती है। पहले उस सड़क पर बहुत दुर्घटनायें हुआ करती थीं। अब तो चार लेन का हाईवे बन गया है, इसलिए खतरा कम हो गया है, परन्तु पहले बहुत खतरा था। इसलिए हम अपनी गाड़ी से कम जाते थे। ज्यादातर बस से जाते थे।

पहली बार मैं पिंजौर तब गया था, जब मैं अकेला ही संस्थान में रहता था। वास्तव में मेरे मित्र श्री राजेन्द्र सक्सेना ने मुझसे कहा था कि उनके एक भांजे श्री अनिल कुमार सक्सेना पिंजौर के पास एच.एम.टी. की फैक्टरी में उच्चाधिकारी हैं और उनका फ्लैट भी वहीं है। वे चाहते थे कि मैं किसी दिन जाकर उनसे मिल लूँ। एक दिन रविवार को मैं बस से गया और एच.एम.टी. के पास उतरा। वहाँ से पूछते हुए अनिल जी के घर पहुँच गया। राजेन्द्र जी ने पहले ही उनको मेरे बारे में बता दिया था। वे बड़े स्नेह से मिले। दोपहर का भोजन भी उन्होंने कराया।

फिर मैंने पिंजौर गार्डन देखने की इच्छा व्यक्त की, तो वे स्वयं अपनी कार से मुझे ले गये और पूरा गार्डन दिखाया। उन्होंने ही बताया कि कुछ समय पहले तक इसमें चिड़ियाघर की तरह कुछ जानवर भी रखे जाते थे, लेकिन मेनका गाँधी ने सबको छुड़वा दिया। पिंजौर गार्डन मुझे बहुत अच्छा लगा। फिर उन्होंने मुझे वहीं से एक टैक्सी में बैठाकर पंचकूला भेज दिया, क्योंकि तब तक अंधेरा हो गया था और पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण वहाँ से रात के समय बस मिलना कठिन हो जाता है।

अनिल जी से बाद में भी दो-तीन बार मुलाकात हुई, परन्तु वे कभी हमारे निवास पर नहीं आ सके और न मैं सपरिवार उनके घर जा पाया।

शिमला भ्रमण

श्री विनोद कुमार चावला उस समय चंडीगढ़ मंडलीय कार्यालय के उप महा प्रबंधक थे। वे हमारे साथ कई वर्ष वाराणसी मंडलीय कार्यालय में और कुछ समय तक कानपुर मंडलीय कार्यालय में रह चुके थे। अतः वे मुझे अच्छी तरह जानते थे। एक बार जब वे हमारे संस्थान में आये हुए थे, तो उन्होंने गौड़ साहब से कहा कि शिमला शाखा का कम्प्यूटर इंस्पेक्शन करने के लिए उनके पास कोई कम्प्यूटर अधिकारी खाली नहीं है, अतः वे किसी कम्प्यूटर अधिकारी को वहाँ भेज दें। गौड़ साहब ने मेरा नाम बताया, तो वे खुश हो गये। मैं ऐसे निरीक्षण नियमित रूप से कानपुर मंडल की सभी शाखाओं में किया करता था। इसलिए इस कार्य के लिए शिमला जाने को फौरन तैयार हो गया। हमारे बैंक के लिए शिमला के एक होटल में दो कमरे सुरक्षित रहते थे। चावला जी ने उनमें से एक कमरा मेरे नाम दो दिन के लिए आरक्षित कर दिया।
मैंने शिमला भ्रमण का लाभ सपरिवार उठाने का निश्चय किया, क्योंकि होटल का कोई खर्च नहीं था। निर्धारित दिन हम सभी बस से पहले कालका पहुँचे, फिर वहाँ से दोपहर बाद शिमला। बैंक का कार्य मैंने पहले ही दिन निबटा दिया, जो मुश्किल से 2 घंटे का था।

उस समय शिमला शाखा में मेरे मित्र श्री कमलदीप महाजन मुख्य प्रबंधक थे। वे भी लगभग 2 वर्ष तक हमारे साथ वाराणसी मंडलीय कार्यालय में रहे थे। बाद में मेरे सामने ही उनका स्थानांतरण किसी शाखा में हो गया था। वे विचारों से राष्ट्रवादी हैं। उनकी विदाई में मैंने कहा था कि उनका नाम दो शब्दों से बना है- ‘कमल’ और ‘दीप’। इनमें कमल भारतीय जनता पार्टी का चुनाव चिह्न है और दीपक उसकी पूर्ववर्ती जनसंघ का चुनाव चिह्न था। इस प्रकार उनका नाम राष्ट्रवाद का जीवन्त प्रतीक है। मेरी इस बात पर सबने खूब ठहाके लगाये थे। अयोध्या का बाबरी ढाँचा गिरने पर जितनी प्रसन्नता मुझे हुई थी, उतनी ही महाजन जी को भी हुई थी। लेकिन तब तक वे वाराणसी मंडलीय कार्यालय से चले गये थे। उसके बाद लगभग 2 वर्ष बाद अचानक जब वे मुझसे मिले, तो पहली बात उन्होंने यही कही कि बाबरी ढाँचा तोड़ दिया गया।
शिमला में उनको देखकर मुझे प्रसन्नता हुई और उन्हें भी। शाम को रिज पर टहलते हुए पुनः भाभीजी के साथ उनके दर्शन हुए। इसके लगभग एक साल बाद वे पंचकूला शाखा में आ गये थे और मुझे कई बार मिले थे। वे पंचकूला के सेक्टर 20 में रहते थे।

शिमला में एक दिन हमने घूमने के लिए तय किया था। उस दिन हमने एक टैक्सी किराये पर ली और शिमला और आसपास के मुख्य-मुख्य स्थान देख आये, जैसे कुफरी, जाखू, नलदेहरा। कुफरी का बड़ा नाम सुना था, परन्तु देखकर बहुत निराशा हुई। वहाँ कुछ नहीं था, केवल घोड़ों की लीद जरूर चारों तरफ पड़ी हुई थी। घोड़े वाले ने हमें मूर्ख बनाकर एक हजार रुपये झटक लिये थे। वह कह रहा था कि वह स्थान यहाँ से 9 किमी दूर है, जबकि वास्तव में वह केवल डेढ़ किमी है। रास्ता भी साधारण था, हालांकि कीचड़ बहुत थी।

कुल मिलाकर शिमला हम में से किसी को पसन्द नहीं आया। पता नहीं लोग वहाँ क्या देखने जाते हैं। उसकी तुलना में हमारे नैनीताल और मसूरी बहुत अच्छे और साफ-सुथरे हैं।

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

6 thoughts on “आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 30)

  • Man Mohan Kumar Arya

    आज की क़िस्त में आरआरएस, पिंजौर बाग़ तथा शिमला के बारे में दी गई जानकारी महत्वपूर्ण हैं। क़िस्त पढ़कर अच्छा लगा। हार्दिक धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      आभारी हूँ, मान्यवर ! पत्रिका तैयार करने में व्यस्तता और नेट चलने में परेशानी के करण मैं आपके लेखों को नहीं पढ़ सका क्षमा करें. पत्रिका पूरी होने पर सबको पढूंगा और टिप्पणी भी करूँगा.

      • मनमोहन कुमार आर्य

        नमस्ते एवं धन्यवाद महोदय। मैं आपकी वर्तमान कठिनाइयों को समझता हूँ। आप इस समय परिवार से दूर मुंबई महानगर में हैं और संभव है कि अनेक विपरीत परिस्थितियों में हैं। मेरी शुभकामनायें एवं सद्भावनाएँ आपके साथ हैं. हार्दिक धन्यवाद।

        • विजय कुमार सिंघल

          प्रणाम मान्यवर ! यहाँ मुंबई में हालाँकि अकेला हूँ, लेकिन पूरी तरह आनंद से हूँ. मुझे यहाँ रहने, खाने, आने-जाने की कोई समस्या नहीं है. वैसे भी मेरी न्व्यक्तिगत आवश्यकताएं बहुत सीमित हैं.
          समस्या केवल इन्टरनेट न चलने की है. मेरा सिम पूर्वी उत्तर प्रदेश का है. इस कारण समस्या होती है. जल्दी ही मैं यहाँ का सिम ले लूँगा. फिर समस्या नहीं रहेगी और मेरा समय भी बचेगा. आपका आभार !

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , आज का अधिआये भी बहुत अच्छा लगा ख़ास कर पिंजौर गार्डन की सैर किओंकि शादी के बाद हम पहले चंडीगढ़ ही आये थे और पिंजौर गार्डन देखने गए थे और यहाँ हम ने दो फोटो उस वक्त के रौलिफ्लैक्स आटोमैटिक कैमरे से खिंची थी जो ब्लैक एंड व्हाईट में थी और अभी भी हमारे कमरे में लगी हुई हैं . जो आप ने लिखा समरण हो आया ,यह १९६७ था .

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार भाईसाहब ! पिंजौर गार्डन वास्तव में सुंदर जगह है।

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