अपनों से भरी दुनिया
अपनों से भरी दुनियाँ, मगर अपना यहाँ कोंन;
सपनों में सभी फिरते, समझ हर किसी को गौण !
कितने रहे हैं कोंण, हरेक मन के द्रष्टिकोंण;
ना पा सका है चैन, तके सृष्टि प्रलोभन !
अधरों पे धरा मौन, कभी निरख कर नयन;
आया समझ में कोई कभी, जब थे सुने वैन !
वेणु हरेक प्यारी लगी, प्रणव ध्वनि सुने;
ओंकार व्याप्त पृथ्वी रही, प्रमा रस पगे !
धुन आए सभी उसकी रहे, देखते त्रिगुण;
‘मधु’ झाँक रहे गया कहाँ, किलकता सगुण !
रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’
टोरोंटो, ओंटारियो, कनाडा