पोर्न के लिए कोलाहल
मैयां मोहिं यह सरकार न भावै।
जो आनंद स्रोत की बैरी पोर्न पे बैन लगावै।
मति मारी सब श्ािष्ट जनन की जो कछु भॉंप न पावै।
हम किसी के हर कदम के विरोधी क्यों हों। उसके पीछे किसी नागरिक स्वतंत्रता के दमन की मंशा है, ऐसा क्यों सोचें ?
सामाजिक बुराइयों पर पाबंदी लगनी चाहिए, यह कौन नही चाहता। पर इसका ढिंढोरा पीटने की क्या जरूरत। यह सब सहज गति से हो। समाज को सड़ाने में हमारा योगदान नगण्य हो, इतनी कोशिश तो जरूर करनी चाहिए। सरकार चाहे तो वह तमाम सख्त कदम उठा कर नागरिकों के जीवन और विचारों में स्वच्छता ला सकती है। क्या यह सच नहीं है कि सारी पोर्न साइट्स स्त्री को पैसे और प्रलोभन के बदले उसकी देह से किए गए यांत्रिक स्वैराचार के जरिए स्त्रीदेह का उत्सव मनाने के ठीहे हैं, जिसमें विश्वव्यापी देह बाजार तंत्र शामिल है। इस तंत्र ने ही इंटरनेट को विंडोशापिंग में बदल दिया है। आज कुछ भी गोपनीय व वर्जित नही रहा। ये साइट्स इसके जरिए करोड़ो यूरो/डालर का कारोबार कर रही हैं। सरकार यदि ऐसे सकारात्मक कदम उठाती है तो उठाने दीजिए। वह कुछ गंदगी साफ तो कर रही है। हालांकि किसी चीज पर बैन लगने से उसके चोरदरवाजे सक्रिय हो उठते हैं। पोर्न फिल्मों व वीडियोज का बाजार पहले भी था आज भी है, रहेगा जब तक सरकार हर मोर्चे पर बंदिश नही लगाती। हमारे यहां हर सरकारी कानून के लूपहोल्स निकाल लिए जाते हैं। हममे से बैन पर होने वाले प्रतिकूल कोलाहल में स्वर मिलाने वाले यह तो चाहते हैं उनके बच्चे भूल से भी इन साइट्स पे न जाएं नहीं तो वे बिगड़ जाएंगे। पर विज्ञापन का तंत्र इतना हावी है कि भूल से भी बटन टच हो जाए तो अनापशनाप स्क्रीन पर आने लगता है। इसीलिए मेरा कहना है कि कुछ अच्छा हो तो हमें प्रसन्न भी होना चाहिए जैसे हम खराब स्थितियों में अवसन्न हो उठते हैं।
पर हैरानी की बात यह है कि हम ऐसे मामलों में इतने उतावले हो उठते हैं कि हम रौ में बह कर वही कहने लगते हैं जो अन्य लोग कह रहे होते हैं। हम अपने दिमाग से अपनी राय कायम क्यों नही करते। अपने विवेक से हम इस पूरे बाजार तंत्र को क्यों नही देखते? सारा कचरा स्वतंत्रता के नाम पर हमी ढोने के लिए हैं क्या? अभी तो ये साधु संत ही बिगड़े हैं, यह सब जारी रहा तो हमारी पूरी नई पीढी बरबाद हो जाएगी। अभी ही वह मोबाइल और इंटरनेट में इतनी डूबी रहती है कि आपसे बात करने का किसी बच्चे के पास समय नही है। क्या आप समझते हैं कि वह किसी परम तत्व की खोज में इस कदर ध्यानमग्न है?—नही भाई। वह तो ऐसे ही आनंद के स्रोतों संवादों में डूबा हुआ दुनिया भर से आंखें मूंदे हुए है। पड़ोस में क्या हो रहा है, उसे इस बात तक की खबर नही है।
मुझे इस मामले में चकाचक बनारसी का एक शेर याद आता है:
हमें खतरे का अंदाजा है लेकिन
हमारे घर में दरवाजा नही है।
उनके घर में दरवाजा है लेकिन
उन्हें खतरे का अंदाजा नही है।
हममें से अनेक को इस खतरे का अंदाजा नही है। बैन के नाम पर हम अपना ही संयम ख्ाो चुके हैं। हम सोचते हैं, ऐसा क्यों हुआ, यह जरूर हमारी स्वतंत्रता पर आघात है। अाज पोर्न साइट्स पर, कल हमारी कला, साहित्य व सांस्कृतिक कार्यकलापों पर पाबंदी लगेगी। लोग बचाओ बचाओ की मुद्रा में आ गए है। ऐसे में कुछ लोग अवश्य है कि वे पोर्न बाजार से उत्पन्न् खतरे को देख पा रहे हैं।
स्वतंत्रता के अभिलाषी इतने ही सतर्क रहे होते तो इस देश में राजनीतिक दबदबे और भयादोहन व प्रताड़ना के लिए इंमरजेंसी न लगाई गयी होती। कुछ लोग उसे तब भी अनुशासनपर्व बता रहे थे। उसके पक्ष में लेखकों का एक वर्ग भी था। संपादकीय व खबरों पर सेंसर्स लगे होते थे। ऐसे वक्त लेखकों की जिम्म्ेदारी बनती थी कि वे ऐसे राजनीतिक अहंकारियों के विरुद्ध एकजुट हों। पर लेखकों ने तब क्या किया। वह तो जेपी थे जिन्हों ने अपने आंदोलन से बल्कि कहें कि अपनी जान की कीमत पर ऐसे अहंकारियों को परास्त किया। आज किसी बुराई को प्रतिबंधित किया गया है तो कुछ तो सकारात्मक कदम है यह। जब कला के प्रतिरूपों पर हमला हो या प्रतिबंध हो, तब आप एकजुट होकर विरोध करें। यह नही कि बीडी पर, सिगरेट पर, शराब पर, बार पर, कोठों पर व अश्लील सेक्सी वीडियोज तथा पोर्न पाठ्य सामग्री पर बैन लग जाए तो अांसू भरने लगें कि हाय स्वतंत्रता छिन रही है। आज यही हो रहा है।
पोर्नाभिलाषियों का यह कोरस अपने आपमें प्रश्नवाचक है।