एच.आई.वी. पॉजिटिव : एक दर्दभरी कहानी
एक खतरनाक इनामी मुजरिम की तलाश जारी थी I वह सीरियल किलर, नशे का शौकीन और व्यभिचारी था I ऐसा भी पता चला था कि मां के पेट में था, तभी से बदमाश है I उसके फोटो सभी पुलिस थानों और सम्बन्धित दफ्तरों में थे, उसकी पहचान के अनेक चिन्ह सबको पता थे I यहां तक कि उसके आन्तरिक अंगों की फोटो और डी.एन.ए. रिपोर्ट भी सबको ज्ञात थी I सभी एजेंसिया उसे खोज रही थी I
एक दिन एक व्यक्ति के घर कोई पारिवारिक आयोजन था, पुलिस ने देखा कि उस व्यक्ति के दरवाजे के बाहर रखे हुए जूतों में उस अपराधी के जूते भी पड़े हैं I वे जूते उसी ब्राण्ड, नम्बर और डिजाइन के जूते थे, जिन्हें मुजरिम अक्सर पहनता था I पुलिस ने केवल जूते के आधार पर ही (बिना जांच-पड़ताल के) उस व्यक्ति को तलाशशुदा खतरनाक मुजरिम करार दिया I न तो फोटो मैच किया और न ही आंतरिक या बाहरी पहचान चिन्हों का मिलान किया गया I लगे हाथ ही उसे कालापानी की सजा दे डाली I ऐसी छोटी-सी कालकोठरी में डाल दिया गया, जिसमें उसको अपनी शेष जिन्दगी अकेले ही गुजारना थी I
जी हां, यह कहानी काफी हद तक एड्स रोग के कारक एच.आई.वी. के नाम से कुख्यात खूंखार वायरस से ग्रस्त मासूम व्यक्ति की है I
रोग निदान का वैज्ञानिक आधार
वास्तव में जब किसी व्यक्ति के शरीर में एच.आई.वी. नामक वायरस प्रवेश करता है यानी उसे संक्रमित करता है, तो उसके रक्त में उस वायरस के विरुद्ध विशेष तरह की एंटीबाडीज उत्पन्न हो जाती हैं I उन विशिष्ट तरह की एंटीबाडीज की उपस्थिति / अनुपस्थिति से पता किया जाता है कि व्यक्ति एच.आई.वी. से ग्रस्त है अथवा नहीं I अर्थात् वायरस की उपस्थिति को सीधे-सीधे नहीं देखा जाता है I जबकि अन्य सभी बीमारियों में बीमार व्यक्ति के शरीर में रोगाणुओं की उपस्थिति को ज्यादा महत्व दिया जाता है I रोग विज्ञान और नाको के अनुसार यह वायरस रोगी के रक्त, वीर्य तथा योनि द्रव में अत्यधिक संख्या में होता है I यह वायरस अन्य शारीरिक द्रवों में भी पाया जाता है, यहां तक कि कम संख्या में थूक, पसीने, पेशाब और आंसुओं में भी I ऐसी स्थिति में रोगी को एच.आई.वी. पॉजिटिव घोषित करने से पहले वायरस को सीधे-सीधे देखकर सत्यापन किया जाना चाहिए I
क्योंकि —
दुखद सत्य यह है कि यह एंटीबाडीज वाली टेस्ट अन्य कई स्थितियों और बीमारियों में भी पॉजिटिव आ जाती है I
यानी एक अविश्वसनीय टेस्ट के आधार पर एक अच्छे भले मासूम व्यक्ति को बदनामी और गुमनामी की उम्रकैद का हुक्म दे दिया जाता है I
यह रोग के साथ साथ अभिशाप भी है
अत्यन्त गम्भीर और ध्यान रखने वाली बात यह है कि यह बीमारी अन्य वायरस या बैक्टीरियाजनित बीमारियों से कई अर्थों में अलग है क्योंकि व्यक्ति एक बार एच.आई.वी. पॉजिटिव घोषित हो जाए तो मरते दम तक उस बीमारी को कलंक की तरह ढ़ोने को विवश हो जाता है I यहां तक कि चिकित्सक भी उसका उपचार करने से कतराते हैं I वह कालापानी जैसी ही तिरष्कृत, प्रताड़ित और अपमानित जिन्दगी जीने को विवश हो जाता है, उसे व्यभिचारी या नशा करने वाला या उसकी मां को दुष्चरित्र तक मान लिया जाता है I
न्यायशास्त्र कहते हैं कि किसी निर्दोष को कसूरवार सिद्ध करना दोषी को निर्दोष सिद्ध करने से ज्यादा बड़ा अन्याय है I
मैंने एच.आई.वी./ एड्स से सम्बन्धित कई भ्रामक तथ्यों का उल्लेख करते हुए अपने प्रधानमंत्रीजी को 28 जून 2014 को विस्तृत पत्र लिखा था I पत्र के एक अंश में लिखा था कि जब संसाधन उपलब्ध हैं तो उस वायरस को इलेक्ट्रान माइक्रोस्कोप से क्यों नहीं देखा जाता है, इस पत्र पर त्वरित कार्रवाई करते हुए उनके कार्यालय ने उसे 16 सितम्बर 2014 को नेशनल एड्स कंट्रोल ऑर्गेनाइजेशन को भेज दिया था I
नेशनल एड्स कंट्रोल ऑर्गेनाइजेशन के श्री नरेश गोयल (उप महानिदेशक (एलएस व आईईसी) का अप्रैल 2015 में जवाब मुझे मिला I उनके द्वारा प्रेषित जवाब का संदर्भित हिस्सा आपके लिए भी जैसा की तैसा पेश है (और स्कैन की हुई प्रति भी संलग्न है) –
“एच.आई.वी. जांच के लिए अनुमोदित मापदंडों के अनुसार, एच.आई.वी. संक्रमण की जांच करने के लिए किसी विकृति जन्य परीक्षण की 95 प्रतिशत से अधिक संवेदनशीलता होनी चाहिए और एच.आई.वी. संक्रमण सुनिश्चित इसकी 95 प्रतिशत से अधिक विशिष्टता होनी चाहिए I यह परीक्षण सीरम, प्लाज्मा और रक्त नमूनों के माध्यम से किया जा सकता है I
नाको, एच.आई.वी. संक्रमण से संभावित व्यक्तियों के रक्त में एच.आई.वी. के लिए एंटीबाडी के परीक्षण कर रहा है I एच.आई.वी. विशिष्ट एंटीबाडी तभी बनती है जब व्यक्ति एच.आई.वी. से संक्रमित होता है I इसलिए एच.आई.वी. एंटीबाडी की पहचान, एच.आई.वी. संक्रमण का साक्ष्य है I
इलेक्ट्रान माइक्रोस्कोपी बहुत कठिन, लम्बी और महंगी प्रक्रिया है और अनुसंधान प्रयोजनों के लिए उपलब्ध है तथा जन स्वास्थ्य कार्यक्रम में निदान हेतु नहीं है I”
राष्ट्रीय, सामाजिक और व्यक्तिगत महत्त्व के ज्वलन्त सवाल
क्या एक सम्माननीय, उत्पादकता (प्राडक्टिविटी) की दृष्टि से देश की महत्वपूर्ण ईकाई, और सम्भावनाशील नागरिक को किसी अविश्वसनीय टेस्ट के आधार पर जीवनभर के लिए उपेक्षित, अपमानित और प्रताड़ित जिन्दगी जीने के लिए विवश करना तार्किक और नैसर्गिक न्याय की दृष्टि से उचित है ?
क्या लम्बी, कठिन और महंगी प्रक्रिया के नाम पर हम अपने ही ऊर्जावान नागरिक का जीवन नारकीय बनाने के दोषी नहीं हैं ?
क्या किसी भी व्यक्ति को एच.आई.वी. पॉजिटिव घोषित करने से पूर्व अन्तिम मुहर के रूप में सीधे-सीधे वायरस को नहीं देखा जाना चाहिए ?
डॉ मनोहर लाल भण्डारी
सार्थक लेखन