लघुकथा : उत्सव
‘जय- जय गंगे |’शहर के सबसे रईस व्यवसायी साधुराम अपने भगत झोले में मोबाइल फोन रखते हुए अपने खास आदमी को इशारे से बुलाते है |
‘दिवाकर कैसी तैयारी चल रही है |’
‘आपके कहे अनुसार पूरी पुख्ता तैयारी हो रही है – देखिएगा इस बार कुम्भ मेले का ये सबसे आकर्षक और भव्य पंडाल होगा |’
साधूराम मुस्कराते है और चारों ओर एक तेज़ नज़र दौड़ाते है |चारों ओर इसी उत्सव की तैयारियां ज़ोरों पर थी| हरी नाम, राम नाम के साथ इस महा उत्सव की तैयारी प्रारम्भ हुई | एक तो वर्ष का बड़ा मेला , फिर पवित्र संगम किनारे और उस पर देश भर से आने वाले साधुओं का जमघट | ‘देखो धन की परवाह मत करना और ध्यान रखना कि जब तक उत्सव चल रहा है तब तक किसी साधू को भूखा न जाने देना |’
‘जी बिल्कुल ध्यान रखूँगा आखिर अतिथये – देवो भवः |’
‘देखो मैंने हिमालय में साधना रत एक महात्मा को बुलाया है और तुम्हारा काम होगा की पंडाल में ज्यादा से ज्यादा साधुओं की भीड़ जुटाना – और मैं दिखा दूंगा कि मैं जितना अच्छा व्यवसायी हूँ उतना ही अच्छा भक्त भी हूँ |’
‘जी वो तो है बिल्कुल – साँच को आँच नहीं |’ पूर्ण निष्ठा से वह सर झुका कर कहता है |
‘मैंने अब तक धन कमाया है और अब मैं धन धान्य से ही भक्ति कमाऊँगा और इस काम में मैं कोई कमी नहीं देखना चाहता |’ फिर साधूराम व्यवसायी अपनी नज़र पंडाल की सजावट में लगे मज़दूरों की ओर डालता है |
‘वो देखो – वो मज़दूर वहाँ बैठा क्या कर रहा है ?’ दोनों उस ओर बढ़ जाते है |
‘ऐ – ये क्या हो रहा है – यहाँ कोई काम चोरी नहीं चलेगी |’
वह वृद्ध मज़दूर जल्दी से अपनी हँफनी संभाल लड़खड़ाता फिर से ढेला उठा लेता है | इस तरह दिवाकर आगे बढ़ता जाता है |
‘ये क्या इन पत्थरों के ढ़ेर पर ये किसका बच्चा है – ये पत्थर क्या इसके खेलने की जगह है? – इसे जल्दी यहाँ से हटाओ – इन पत्थरों से श्री श्री महादेव का सिंहासन बनेगा – कमबख्तों ने पत्थर दूषित कर दिए |’
दिवाकर की तेज़ आवाज़ सुन कर एक मज़दूर औरत जल्दी से दौड़ कर आती है और अपने दूधमुहें बच्चे को उठाकर मिट्टी में बैठा देती है |
फिर दिवाकर पंडाल के दूसरे कोने में देखता है |जहाँ एक आठ नौ साल की एक मजदूर लड़की अपने खाने की पोटली खोल रही थी |
‘अरे – ओ – ये क्या करती है – यहाँ अपना गंदा पोटला मत खोल – और अभी तो दोपहर भी ठीक से नहीं ढली अभी से खाने लगी – चल काम कर – नहीं तो दिहाड़ी में से सिर्फ दो रुपया दूंगा |’
सभी मजदूर आवाज़ को निर्देश और नियति समझ काम में तत्पर हो जाते है| दिवाकर वहाँ खड़ा कहता है – ‘ऐसे बीच बीच में काम छोड़ खाने या घर जाने की बात की तो याद रखना सीधे घर ही भेज दूंगा – कामचोर कहीं के|’
इस तरह मज़दूरो को हड़का कर दिवाकर बड़े गर्व से मुस्कराता हुआ साधुराम की तरफ देखता है |उनके चेहरे पर भी मुस्कान देखता है |जो उसके लिए पुरस्कार की तरह थी | फिर साधुराम अपने भगत चोले की आस्तीन उठा कर अपनी महंगी सी घड़ी में समय देखकर अपनी कार की तरफ बढ़ जाता है |