********* औरत ************
औरत है खानाबदोश …………
अपने सपनो को वक़्त के
पहिये पर लादे,
पिता के घर से बेघर
पति के घर पड़ाव डालती,
निरंतर घूमती है
बेटी पत्नी माँ बन,
काफिले जोड़ती रिश्तों के
फिर भी अकेली,
हिम्मत हारने का अधिकार नहीं
क्योंकि उसका दिल धड़कता है
औरों के लिए,
अगर वह रूक जाए
तो रुक जाएगा
ज़िन्दगी का काफिला,
इसलिए बस चलती है
और चलती जाती है “नाज़ “,
खानाबदोश बन औरत।।।।।।।
__________________ प्रीति दक्ष “नाज़”
बढ़िया कविता !
shukriya vijay ji