संस्मरण

मेरी कहानी – 50

कैंप से वापस आ कर हम ने फिर से स्कूल जाना शुरू कर दिया। फगवारे जाना हमें बहुत अच्छा लगता था क्योंकि गाँव से आ कर हम एक दम एक नई दुनिआ में आ जाते थे। आज बच्चों को  तरह तरह के खाने मिलते हैं लेकिन फिर भी संतुष्ट नहीं होते ,अगर हम उन को बताना चाहते हैं तो वोह सुनना  भी नहीं चाहते और कह देते हैं ,डैड “आप का ज़माना और था “.  हाँ , यह बात तो उन की सही है लेकिन मुझे तो लिखना ही चाहिए कि उस वक्त हम क्या खाते थे। स्कूल जाने से पहले हमारा ब्रेकफास्ट होता था दही के साथ पराठे और साथ में ढेर सा माखन और एक बड़ा ग्लास लस्सी का , या कभी कभी मक्की की रोटीआं और साग और उस पे भी ढेर सा माखन। साथ ले जाने के लिए भी पराठे और साथ में आम का आचार और एक बड़ा सा प्याज़। चारों दोस्त घर से इकठे चल पड़ते और इतनी बातें करते और हँसते रहते कि याद करके ही मज़ा आता है। राणी पुर  से चल कर जब बार्न गाँव आते तो सड़क पर एक घर आता था जो किसी अमरीका या कैनेडा के ऐन  आर आई का था। इस घर के आगे  एक बड़ा खेत था जिस में पपीते के छोटे छोटे बृक्ष होते थे जो पपीतों से लदे हुए होते थे। जब वोह पक जाते थे तो उन का रंग पीला हो जाता था। बहुत दफा जब हम स्कूल से वापस आते तो एक आदमी जो कुछ बज़ुर्ग होता था उस से हम पपीता मांग लेते जो वोह ख़ुशी से दे देता। हम वहीँ खेत में बैठे बैठे खाने लगते और उस बज़ुर्ग से बातें भी करते रहते। कई साल हम यहां से पपीते खाते रहे।

बीस पचीस वर्ष की बात होगी ,मैं ताँगे में बैठा फगवारे को जा रहा था  ,जब उसी जगह आया यहां पपीते के बृक्ष हुआ करते थे तो देखा ,अब उस जगह पर कुछ नहीं था। मेरे मुंह से निकल गिया ,कोई समय था ,जब हम यहां पपीते खाया करते थे। गहरा सांस ले कर तांगे में बैठी एक बुड़ीआ बोली ,”वे वीरा ! अब वोह लोग ही नहीं रहे , बंदों के साथ ही रौनक होती है ,बंदे अपने साथ ही रौनक ले गए ” . वक्त कैसे बदल जाता है ,अब इस जगह छोटा सा बस अड्डा है और पपीतों की जगह पर बड़े बड़े मकान बन गए हैं।

बार्न के आगे आता था प्लाही , यहां दो चार बहुत छोटी छोटी दुकानें होती थी और साथ ही एक दाने भूनने वाली बुड़ीआ की भट्टी होती थी और उस के पीछे होता था एक बहुत बड़ा एक गन्दा तालाब । साथ में ही  एक साइकल वाले की दूकान होती थी जिस में लोग अक्सर साइकल रिपेअर कराने या पंचर लगाने के लिए आते रहते थे  ,इस दूकान के मालक  का नाम मिंदर सिंह था। इस मिंदर सिंह पर हम बहुत हंसा करते थे। यह शख्स पांच फ़ीट दो या तीन इंच था और हमेशा ही गुस्से के मूड में होता था ,कुछ ना कुछ बोलता रहता। दूकान के बाहर एक बड़ा सा साइकल में हवा भरने के लिए पंप रखा होता था । लोग आते और अपने अपने साइकल के टायर में हवा डालते। मिंदर सिंह अक्सर बोलता रहता ,” देखो जी , अगर मैं हवा भरने के पैसे लूँ तो फिर इन लोगों को मिर्च लगेगी, जो आता है हवा भरके चला जाता है ,काम कोई करवाता नहीं ,पंप की वाशर मुझे आये दिन बदलनी पड़ती है  ” . दूकान से कुछ दूर जा कर हम खूब हँसते और मिंदर सिंह की मिमक्री करते।

मिंदर सिंह की दूकान के सामने सड़क की दुसरी ओर खेत होते थे। एक दिन वहां खेत में कुछ इस्त्रीआं और लड़किआं बैठ कर काटी हुई मक्की के टाँढ़ों   से छलिआं तोड़ तोड़ कर सामने फैंक रही थी। उन के सामने छलिओं का ढेर लगा हुआ था। पीली पीली सूखी हुई छलीआं बहुत अच्छी लग रही थीं। हमारा मन मक्की के भूने दाने चबने  को हो आया लेकिन उन इस्त्रीओं को कहें कैसे , मांगें कैसे  यह  एक बड़ा सवाल था। बहुत देर तक तू जाह ,तू  जाह एक दूसरे को कहते रहे लेकिन हौसला नहीं पड़ता था। फिर जीत बोला ,”ओए तुम सब डरपोक हो ,मैं जाता हूँ “. खेत की तरफ जाते हुए जीत को हम देख रहे थे कि किया करता है। जीत वहां पौहंचा और जाते ही हाथ जोड़ कर उस ने एक बुड़ीआ  को सत  सिरी अकाल  बोला और फिर कहने लगा ,माता जी , हमें भूख बहुत  लगी है ,कुछ छलिआं मिल सकती हैं ?। वोह बुड़ीआ  बोली ,बेटा जितनी चाहिए उतनी उठा लो। जीत ने पांच छलिआं उठाई और ले आया और आते ही  हम को बोला ,”तुम सब तो डरपोक हो ,देखा मैं ले आया हूँ “. हम ने  छलिओं से दाने इलग्ग किये और दाने ले कर बुड़ीआ की भट्टी पर ले गए। हम सब ने भूने हुए  दाने अपने अपने साइकल की टोकरीओं में रख लिए और खाते खाते राणी पुर आ  गए।

यह मिंदर सिंह की दूकान हमारा भी एक किसम का अड्डा ही होता था। मिंदर सिंह ने कुछ मठाई भी रखी हुई  होती थी जो छोटी छोटी पीपीओं में रखी होती थी जिन के सामने वाला हिस्सा शीशे का होता था और इन में से मठाई दिखती थी,  जिस को देख कर खाने को मन होने लगता था। एक दिन जब हम स्कूल से आ रहे थे तो हुशिआर पुर रोड से उत्तर कर जब नहर के रास्ते पर आये तो बूंदा बांदी होने लगी। क्योंकि बारशों  के दिन यह रास्ता बहुत खराब हो जाता था और साइकल चलाना कठिन हो जाता था ,इस लिए हम साइकल तेज तेज चलाने लगे। दो लड़कीआं  अपने सरों पर शायद रोटीआं होंगी ले कर दुसरी ओर प्लाही से आ रही थीं। यों ही नहर का रास्ता खत्म हुआ हम ने चैन की सांस ली। इतने में जोर से बिजली इतनी कड़की कि हम काँप गए और जल्दी जल्दी मिंदर सिंह की दूकान में आ गए। मूसलाधार बारश  हो रही थी। कुछ और लोग भी बैठे थे कुछ ही देर बाद  वोह ही लड़किआं जोर जोर से रोती हुई आ रही थीं। मिंदर सिंह ने उन से रोने का कारण पुछा तो वो रो रो कर बताने लगीं कि बिजली कड़कने से उन के दो भाई इस दुनिआ से चले गए। हम सुन कर हैरान और सुन्न हो गए क्योंकि हम तो अभी अभी वहां से आये थे और हम ने कुछ लोगों को खेतों में काम करते हुए देखा था । वोह लड़किआं रोती हुईं अपने घर की तरफ चली गईं। सभी लोग बैठे उन लोगों की बातें कर रहे थे क्योंकि गाँव में रहते हुए वोह उन को जानते थे। घबराए हुए हम भी जाने के लिए तैयार हो गए।
एक बात और भी मैं लिखना चाहूंगा कि मिंदर सिंह की दूकान पर दो लड़किआं भी कभी कभी आया करती थीं जो कहीं किसी प्राइमरी स्कूल में अधिआपका लगी हुई थी। जब उन्होंने अपने साइकलों में हवा भरणी होती तो किसी ऐसे शख्स को कहतीं जो उन के खियाल से अच्छा हो। इस से मुझे एक बात याद आती है कि उस ज़माने में गाँव की लड़किओं को कितनी मुश्किल पेश आती थी। आज तो लड़किआं बहुत आगे जा चुक्की हैं लेकिन उस समय तो कोई कोई लड़की ही जे बी का कोेर्स करके प्राइमरी स्कूल में अधिआपका लगती थी। उस वक्त लड़किओं का अधिआपका होना अच्छा भी नहीं समझा जाता था। अभी कुछ वर्ष पहले ही तो गाँव की लड़किआं स्कूल भी नहीं जाती थीं। पहली दफा हमारी क्लास में ही चार लड़किआं पड़ती थीं।  अक्सर  लोग उन अधिआपका लड़किओं पर लांछन लगाते रहते थे कि इन लड़किओं का चालचलन ठीक नहीं था। लेकिन यह सिर्फ खुसर फुसर ही होती थी और किसी में हौसला नहीं होता था कि किसी लड़की को कुछ कह सकें। लोग पिछड़े हुए जरूर थे लेकिन लड़किआं कहीं भी जाएँ महफूज़ थीं। आज जो हो रहा है ,उस की बात करके ही शर्म आती है कि इस से तो उस ज़माने के कम पढ़े लोग ही अच्छे थे।
आज प्लाही गाँव बहुत सुन्दर गाँव है। यहां मिंदर सिंह की दूकान होती थी वहां अब बड़ी बड़ी  दुकाने और बैंक बन गए हैं ,भट्टी वाली बुड़ीआ के पीछे तो उस गंदे तालाब को मट्टी से भर कर  एक विशाल कालज बना हुआ है . मिंदर सिंह की यहां दूकान होती थी वहां ही बस अड्डा है जो बहुत बिज़ी रहता है। चारों तरफ के गाँवों से बसें आती हैं। जिस नहर के साथ साथ हम जाया  करते थे वहां एक हाइवे बना हुआ है जो बहुत बिज़ी है और इस को क्रॉस करने के लिए बहुत देर तक इंतज़ार करना पड़ता है लेकिन अब हुशिआर पुर रोड को जाने की कोई जरुरत नहीं क्योंकि यह हाइवे क्रॉस करके सीधे ही दो किलोमीटर पर फगवाड़ा आ जाता है।
उन दिनों में फगवाड़ा बहुत अच्छा होता था। बेशक आज बड़े बड़े रैस्टोरैंट बन गए हैं ,बड़े बड़े बैंक बन गए हैं लेकिन उस समय जीटी के दोनों ओर  बहुत खुली जगह होती थी। शूगर मिल जिस का नाम उस वक्त जगतजीत शूगर मिल होता था (इस वक्त इस का मालक कोई और है ) के आगे जीटी रोड तक बिलकुल खुला होता था और यहां कुछ लोग मजमें लगाया करते थे और गन्ने से लदे हुए छकड़े भी खड़े होते थे। कारें तो बहुत कम दिखाई देती थी , सिर्फ ट्रक और बसें ही ज़्यादा होती थी। आगे जा कर पैराडाइज़ सिनिमा होता था जिस में बहुत रौनक होती थी , अब यहां दुकानें बनी हुई हैं और कुछ साल पहले जब भी कभी मैं इन दुकानों को देखता तो ऐसा लगता था कि इन दुकानों ने उस सुंदरता को बर्बाद कर दिया है। शूगर मिल से आगे जीटी रोड पर चौक होता था जिस पर उस समय बस अड्डा हुआ करता था और सड़क के एक तरफ ड्राइवरों के लेटने और आराम करने के लिए छै सात फ़ीट चौड़ा और आठ नौ फ़ीट लम्बा मंजा (चारपाई ) होता था जिस पर ड्राइवर लेटे हुए होते थे (अब तो पैराडाइज़ सिनीमे के दुसरी ओर अच्छा बस स्टेशन बन गिया है ). इस पुराने बस अड्डे से जीटी रोड को क्रॉस करती हुई एक सड़क फगवारे टाऊन को जाती है जिस पर बने प्रभात होटल में हम कभी कभी खाना खाया करते थे और यह  सड़क दूसरी  ओर  रेलवे स्टेशन को जाती है जिस के बाईं ओर पर सेंट्रल बैंक होता था (हो सकता है अब भी हो ), और इस सेंट्रल बैंक के बिलकुल सामने होता था लछू का ढाबा। यह सब जो मैंने लिखा है उस का मकसद सिर्फ लछू के ढाबे के बारे में लिखना ही है।
यूं तो हम घर से पराठे ले कर आते थे लेकिन कभी कभी हम किसी ढाबे पे भी खा लिया करते थे और पराठे वापस ले जाते थे। फगवारे में उस वक्त कोई रैस्टोरैंट नहीं होता था सिर्फ ढाबे ही हुआ करते थे जिस में प्रभात होटल ही अच्छा था लेकिन आज के स्टैण्डर्ड से तो यह एक छोटा सा ढाबा ही था। शहर में एक होता था खराएती का ढाबा जिस की एक टांग कटी हुई थी और एक लाठी के सहारे चलता था , दूसरा था पहलवान का ढाबा जो बहुत तगड़ा भारी पहलवान था , तीसरा था हदियाबाद  रोड पर फौजी का ढाबा और चौथा था रेलवे रोड पर लछू का ढाबा। जी हाँ ,इस ढाबे से जुड़ी बहुत सी यादें हैं। लछू एक सांवले रंग का चालीस पैंतालीस वर्ष का शख्स था जिस की पगड़ी बिलकुल ढीली सी ,साधारण कमीज और लुंगी पहनता था। ढाबे की जगह होगी कोई  तकरीबन पंद्रा सोलह फ़ीट लम्बी और बारह तरह फ़ीट चौड़ी लेकिन खाने बनाने वाली भट्टी और तंदूर ढाबे के आगे होता था। लछू की एक सपेशिऐलिटी होती  थी “उर्द की काली दाल और उस को लगाया तड़का ” बस यह उर्द की दाल ही हम खाने जाते थे और साथ में होती थीं  बहुत बड़ी बड़ी तंदूरी रोटीआं। ऐक दो सब्जिजीआं  भी होती थीं लेकिन हम सिर्फ उर्द की दाल से ही मज़ा लेते थे। यह उर्द की दाल मट्टी के एक बहुत बड़े घड़े में बनाई होती थी।
एक दफा पूछने पर लछू ने हमें बताया था कि वोह हर रोज चार बजे उठ कर दाल का घड़ा भट्टी पर रख देता था जो हलकी आंच पर पांच शै घंटे बनती रहती थी जिस में वोह प्याज अधरक और लसुन भी डाल  देता था। दाल को तड़का लगाने का उस का एक अजीब ही ढंग था। जरुरत के मुताबक दाल को वोह एक फ्राई पैन में अच्छी तरह गर्म करके पलेट में डालता  ,फिर एक बड़ी  लोहे की कौली में प्याज़ और घी डालता , फिर उस कौली को लोहे के एक लम्बे प्लास से पकड़ता ,जिस को सहन्नी बोलते थे ,और भट्टी में डाल देता। जब प्याज़ भून जाता तो कौली को बाहर निकाल कर उस में थोह्ड़ा सा मसाला डाल कर एक दम दाल वाली पलेट में डाल देता , जिस से शूं शूं (sizling sound ) की आवाज़ आती। ऊपर से थोह्ड़ा सा हरा धनिया डाल  देता। दाल के ऊपर तैरता हुआ घी मसाला और धनिया एक अजीब सी खुशबू छोड़ता जिसको देखकर ही मज़ा आ जाता। एक छोटा सा लड़का जो वहां  काम किया करता था ,हमारे आगे थाली में दाल और दो दो बड़ी बड़ी तंदूरी रोटीआं मेज के ऊपर रख जाता। इस सादे भोजन को खाने का जो मज़ा होता था वोह अभी तक याद है। इसके कुछ सालों बाद  मेरे छोटे भाई भी वहां जाने लगे थे।
मैट्रिक के इम्तिहान में दो तीन महीने रह गए थे और यही बैठ कर हम ने फैसला किया कि पिछले साल की तरह हम शहर में रहने लगें। क्योंकि बहादर का मकान कराए पर उठ गिया था ,इस लिए हम ने कमरा कहीं और ढूंढने का सोच लिया। वहीँ पर एक लड़का बैठा था जो उसी वक्त बोल उठा कि कमरा हमें चाना बिल्डिंग में मिल सकता है और मकान मालिक भी वहीँ बिजली के प्लग बनाता है और हम उस से पूछ लें। दूसरे दिन वहां जाने का हमने प्रोग्राम बना लिया। एक दिन मैं और भजन इस ढाबे में दोनों रोटी खा रहे थे कि अचानक एक इस्त्री ने शोर मचा दिया ,” वोह लड़के मेरा पर्स ले कर दौड़ गए ,उन्हें पकड़ों ,उस में मेरा पासपोर्ट और टिकट हैं ” मैं और भजन उसी वक्त रेलवे रोड पर दौड़ पड़े और शोर भी मचाने लगे कि उन लड़कों को पकड़ो। कुछ और लड़के भी भागने लगे और उन लड़कों को रेलवे स्टेशन के नज़दीक पकड़ लिया गिया। बहुत लोग इकठे हो गए थे और हम उन लड़कों को पकड़ कर ले आये। वोह इस्त्री बहुत परेशान हो रही थी ,जब हम ने उस को बताया कि अपना पर्स चैक कर लो तो उस ने देखा सब कुछ सही सलामत था। उस की जान में जान आई। वोह हमें कुछ पैसे देने लगी लेकिन सब ने मना कर दिया। कुछ लोगों ने उन लड़कों को बहुत पीटा और उन को पुलिस स्टेशन ले जाने लगे। हम तो नहीं गए , पता नहीं वोह लोग उन को ले गए थे या नहीं हमें नहीं पता। इस बात से मुझे एक शिक्षा मिली। वोह यह कि जब भी हम इंडिया आते थे , पासपोर्ट और टिकटों को बहुत संभाल कर रखते थे क्योंकि गुम हुए पैसे तो फिर भी मिल जाएंगे लेकिन पासपोर्ट टिकटें गुम होने से वापस जाना बहुत मुश्किल हो सकता है।
यहां आने पर पहले कुछ साल तो जब भी इंडिया आते थे लछू के ढाबे पर एक दफा तो जरूर रोटी खाते थे और उन से मुलाकात भी हो जाती लेकिन धीरे धीरे हम भूल ही गए। कभी कभी छोटे भाई से  टेलीफून पे बात होती थी तो वोह बताया करते थे कि लछू अब बहुत बूढ़ा हो गिया है और ढाबे में बस बैठा रहता है और उस के लड़के ढाबे को चला रहे हैं। इसके बाद कुछ साल हुए मेरे छोटे भाई ने मुझे टेलीफून पे बताया था कि लछू अब यह दुनिआ छोड़ चुक्का है लेकिन ढाबा अब उस के लड़के चला रहे हैं जो अब बहुत बड़ीआ चला रहे  हैं  और पहले से कहीं बेहतर है और इस जगह बहुत भीड़ रहती है। लछू ने जो पेड़ लगाया था , वोह अब फलों से भर गिया है। लछू की याद भी मेरी माला का एक मणका है।
 चलता……

5 thoughts on “मेरी कहानी – 50

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आज की पूरी कथा पढ़ी। आपने इस किस्त में अपने जीवन की छोटी छोटी बातों को याद रखा और उन्हें शब्द देकर सजाया व संवारा है जो पढ़ते ही बनता है। सारी स्थिति पाठक की आंखों के सामने वीडियों फिल्म की तरह से साकार हो जाती है। उपन्यास से अधिक आनन्द का मैंने आपकी आत्म कथा में अनुभव किया है। जीवन के बारे में सुना था कि ‘‘जाकर जो न आये वह जवानी देखी और आ कर जो न जाये वह बुढ़ापा देखा।” यह हम सब के जीवनों की हकीकत और पं्रकृति का अटल नियम है। जीवन के अतीत को संभाल कर रखने और हमसे शेयर करने के लिए हार्दिक धन्यवाद। ईश्वर से प्रार्थना है कि आपकी लेखनी इसी प्रकार लम्बे समय तक चलती रहे, आप स्वस्थ, प्रसन्न एवं सुखी रहें।

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    छोटी से छोटी बात को संजोये उम्दा लेखन

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      बहन जी , धन्यवाद .

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत खूब भाईसाहब ! आपने पुराने ज़माने का जो वर्णन किया है वह बहुत रोचक है। उस समय लोग सीधे सच्चे होते थे। छोटी छोटी चीज़ों का भी आनंद उठाना जानते थे।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      विजय भाई ,. यों तो ज़माना एक जगह खड़ा नहीं होता ,बदलता रहता है लेकिन इन यादों को याद करके एक मज़ा सा आ जाता है . वोह ज़माना कुछ इस लिए भी अच्छा था कि उस वक्त लोग सीधे साधे और सच्चे होते थे .रेप का नाम ही हम ने कभी सुना नहीं था ,ना ही तलाक शब्द को जानते थे .यह ज़माना बस इतहास हो कर ही रह गिया है .

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