कविता
सुनो
हैं मेरी ये ख्वाहिश
कि जला दी जाए
मेरी कवितायें
मेरी सारी डायरियाँ
नहीं चाहती कि
मेरे जाने के बाद
कोई भी टुकड़ा
मेरी आवाज़ का
इन वादियों में
भटकता फिरे,
गुमराह हो.
चाहती हूँ
पूरी तरह
अपनी ख़ामोशी की
आगोश में जाना …
पूरे होश-ओ-हवास में
करती हूँ
वसीयत कि
जहाँ कहीं भी
मेरे लिखे
अलफ़ाज़ हैं
वो
सिर्फ
मेरी जिंदगी के हैं,
ना समझ बैठे
कोई इसे हकीक़त
इश्क नाम हैं
एक गहरी ख़ामोशी में
डूबने का
रेज़ा रेज़ा
बिखरने का
दर्द हैं
आह हैं
यादों की
कोई कब्रगाह का…!!
****रितु शर्मा*****
बेहतर, परंतु निराशावादी कविता !