आत्मकथा

आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 36)

योग कक्षायें

जब मुझे पंचकूला में रहते हुए लगभग दो साल हो गये थे, तब हमारी सेक्टर 12-ए की शाखा बहुत अनियमित हो गयी थी। इसका प्रमुख कारण, जैसा कि मैं पहले लिख चुका हूँ, यह था कि कई प्रमुख स्वयंसेवक हमारे सेक्टर को छोड़कर दूसरे सेक्टरों में या अन्य स्थानों पर चले गये थे। इसलिए नियमित शाखा आने वाला मेरे और प्रह्लाद जी के अलावा कोई नहीं बचा था। प्रह्लाद जी भी कई बार नहीं आते थे, क्योंकि उन्हें जल्दी ही आॅफिस के लिए बस पकड़नी पड़ती थी। इससे शाखा लगभग बन्द हो गयी थी। जिस पार्क में हमारी शाखा लगती थी, उसी पार्क में एक सज्जन गुलाटी जी योग कराया करते थे। वे दिल्ली के भारतीय योग संस्थान से जुड़े हुए थे और उसी पद्धति से योग कराते थे। जब हमारी शाखा बन्द हो गयी, तो मैं भी उनके साथ योग करने लगा। मैं दो-तीन माह उनके साथ योग करता रहा।

हमारे संस्थान में जो लोग प्रशिक्षण पर आते थे, उनमें से कई नियमित योग या व्यायाम करने वाले होते थे। वे प्रायः मुझसे कहा करते थे कि यहाँ योग कराने की व्यवस्था होनी चाहिए। वैसे हमारे संस्थान में भूमि तल से भी नीचे एक तल था, जिसमें एक बड़ा हाॅल था। उसमें योग केन्द्र बनाना संस्थान की योजना में था। परन्तु कभी इसके लिए गम्भीरता से प्रयास नहीं किया गया। इसलिए मैंने सोचा कि मैं सुबह यहाँ आकर योग करा सकता हूँ। मेरा निवास संस्थान से केवल एक किलोमीटर दूर था। इतनी दूरी मैं सरलता से पैदल आ-जा सकता था।
इसलिए मैंने गौड़ साहब से योग कराने की अनुमति माँगी। उनको इस बारे में कोई आपत्ति नहीं थी, लेकिन कहने लगे कि योग कराने के बदले आपको कुछ मिलेगा नहीं। मैंने कहा- ‘मुझे कुछ चाहिए भी नहीं। केवल दरियों की व्यवस्था कर दीजिए।’ वास्तव में योग शिक्षक को प्रतिमाह रु. 3000 तक मानदेय देने की व्यवस्था संस्थान के बजट में थी। परन्तु संस्थान के एक अधिकारी को ये नहीं दिये जा सकते थे। गौड़ साहब के ‘हाँ’ कर देने पर मैं संस्थान के ड्राइवर के साथ मनीमाजरा गया, जो चंडीगढ़ और पंचकूला से सटा हुआ एक कस्बा है और चंडीगढ़ के अन्तर्गत आता है। वहाँ से मैं एक दर्जन दरियाँ खरीद लाया।

अगले ही दिन से मैंने योग कराना प्रारम्भ किया। शुरू में एक-दो लोग ही आते थे। श्री अनिल नेमा भी आ जाते थे। जो प्रशिक्षणार्थी प्रातः टहलने जाते थे या नीचे उतर आते थे, उनको मैं बुला-बुलाकर योग करने बैठाता था। मैंने यह निश्चय कर लिया था कि योग कक्षायें चलाने में कोई नागा नहीं करूँगा और अगर किसी दिन एक भी व्यक्ति नहीं आयेगा, तो मैं अकेला ही योग करूँगा। इसका फायदा यह हुआ कि रोज ही लोग आने लगे, क्योंकि उन्हें यह विश्वास होता था कि मैं अवश्य आ जाऊँगा। धीरे-धीरे योग करने वालों की संख्या भी बढ़ने लगी और मेरे द्वारा खरीदी गयी 12 दरियाँ कम पड़ने लगीं। ऐसा होने पर मैं 4 दरियाँ और खरीद लाया।

मैंने स्वास्थ्य और योग के बारे में एक पुस्तिका लिखी थी। यह पुस्तिका वास्तव में कानपुर में ही पूरी हो गयी थी, लेकिन तब तक कम्प्यूटर पर ही थी। इसमें स्वस्थ रहने के उपायों के साथ व्यायाम, योगासन, प्राणायाम वगैरह करने की सचित्र विधियाँ भी दी गयी थीं। इतना ही नहीं, इसमें ज्यादातर होने वाली बीमारियों की प्राकृतिक चिकित्सा भी बतायी गयी थी। मैंने इस पुस्तिका का नाम रखा था- ‘स्वास्थ्य रहस्य’। मेरा दावा है कि इस पुस्तिका में लिखी गयी बातों पर चलने वाला कभी बीमार पड़ ही नहीं सकता और यदि संयोग से कोई शिकायत हो भी जाये, तो इसमें दिये गये उपायों का पालन करके बिना किसी खर्च के तत्काल स्वस्थ हो सकता है। मैं स्वयं इन बातों का पालन करता हूँ और सदा स्वस्थ रहता हूँ।

जब मैंने योग कराना शुरू किया, तो इस पुस्तिका को छपवाने का विचार किया। मैंने यह तय किया था कि योग करने आने वालों में यह पुस्तिका अपनी ओर से मुफ्त बाँटूँगा। यह पुस्तिका लोगों को बहुत पसन्द आयी। पंजाब नेशनल बैंक के एक अधिकारी ने यह पुस्तिका कहीं देख ली, तो उसे इतनी पसन्द आयी कि अपने प्रशिक्षण संस्थान के लिए उसकी 200 प्रतियाँ मुझसे खरीदकर ले गये। लेकिन खेद है कि हमारे सहायक महाप्रबंधक गौड़ साहब की ओर से इसमें कोई सहयोग नहीं मिला।

उन दिनों हमारा बैंक सी.बी.एस. अर्थात् केन्द्रीय बैंकिंग समाधान में प्रवेश कर रहा था। इसका तात्पर्य है कि बैंकों की सभी शाखाओं को एक ही सर्वर से जोड़ दिया जाना था और केन्द्रीय स्तर पर ही उनका डाटा रखा जाना था। इससे कोई ग्राहक किसी भी शाखा में खाता खोलकर उसी या किसी भी अन्य शाखा से लेन-देन कर सकता है। उन दिनों सी.बी.एस. के प्रशिक्षण लगातार चल रहे थे और उनमें मुख्यतः दिल्ली शहर की विभिन्न शाखाओं से सहभागी आते थे। इनमें महिलाओं की भी अच्छी संख्या होती थी। प्रशिक्षण में आने वाली प्रायः सभी महिलायें और अधिकांश पुरुष मेरी योग कक्षाओं में आने लगे और नियमित योग करने लगे। हालांकि प्रत्येक बैच केवल एक सप्ताह वहाँ रहता था और मैं रविवार को छोड़कर शेष 6 दिन योग कराता था, लेकिन 6 दिन में ही वे सब सभी क्रियाएँ अच्छी तरह सीख जाते थे। अपनी योग और स्वास्थ्य वाली पुस्तिका तो मैं उनको पहले ही दिन दे देता था। अपने प्रशिक्षण के अन्तिम दिन वे मुझसे विदा लेते समय बहुत आभार प्रकट करते थे।

मैं सहभागियों को स्वास्थ्य सम्बंधी सलाह भी देता था। जो मेरी सलाह पर चलते थे, वे अपनी समस्या से मुक्त हो जाते थे। एक बार एक सज्जन ने अपनी रीढ़ में दर्द होने की समस्या बतायी, जिससे वे तीन साल से पीड़ित थे। मैंने उन्हें रीढ़ के कुछ सरल लेकिन प्रभावी व्यायाम बताये, जिनको मैं सबको कराता भी था। लगभग 6 महीने बाद जब वे सज्जन दोबारा प्रशिक्षण के लिए आये, तो स्वयं ही बताने लगे कि उन व्यायामों से उनका रीढ़ का दर्द बिल्कुल चला गया, वह भी केवल एक माह में। मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। इसी प्रकार कई लोगों को लाभ हुआ था।

प्राथमिक चिकित्सा बक्सा

मैंने प्रशिक्षणार्थियों के उपयोग के लिए एक प्राथमिक चिकित्सा बक्सा बना रखा था। उसमें चोट लगने पर की जाने वाली मरहम पट्टी के सामान के साथ ही प्रायः हो जाने वाली शिकायतों जैसे बुखार, जुकाम, खाँसी, पेट दर्द, सिर दर्द आदि की गोलियाँ भी थीं। यह बक्सा मेरी मेज के पास ही रखा रहता था, जिससे कि मेरी अनुपस्थिति में भी लोग उसका लाभ उठा सकें। इससे यह फायदा हुआ कि प्रशिक्षणार्थियों को ऐसी शिकायतों होने पर तत्काल चिकित्सा मिल जाती थी और डाक्टरों के पास बहुत कम जाना पड़ता था।

मैं संस्थान में प्रशिक्षण के लिए आने वाले लोगों की व्यक्तिगत समस्याओं को भी हल करता था। मैंने एक शिकायत रजिस्टर काउंटर पर रखवा दिया था, जिसमें लोग अपनी समस्याएँ लिख सकते थे। उनका तत्काल समाधान किया जाता था। मैं प्रशिक्षण के पहले ही दिन उनसे कह देता था कि किसी भी तरह की समस्या हो, तो रजिस्टर में लिख दें और यदि 24 घंटे के अन्दर समाधान न हो, तो मेरी जानकारी में लायें। इसका परिणाम यह हुआ कि लोगों की शिकायतों पर तत्काल कार्यवाही की जाती थी और वे सन्तुष्ट रहते थे।

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

7 thoughts on “आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 36)

  • Man Mohan Kumar Arya

    आज की जानकारी से आपके परहितकारी स्वभाव व लोगो को योग द्वारा स्वास्थ्य को ठीक रखने में व्यक्तिगत स्तर पर प्रयास करने के दैवीय गुण का ज्ञान होता है। मैं आपके इस स्वभाव व गुण को नमन करता हूँ। आज के समय ऐसा प्रशंसनीय स्वभाव व गुण, लगता है पूर्व जन्म के संस्कारों के कारण है। हार्दिक धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार मान्यवर ! इसका श्रेय हमारी माता जी और संघ से प्राप्त संस्कारों को है.

      • Man Mohan Kumar Arya

        Namaste avam dhanyavad Sh. Vijay ji.

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , आप ने बहुत अच्छा काम किया किओंकि योग से बहुत फैदा होता है .आप ने इतने लोगों का भला किया ,यह बहुत बड़ा काम है .

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार भाईसाहब, हमसे दुनिया की जितनी सेवा हो जाये हमारा ही सौभाग्य है। मैं आजकल भी अपने पड़ोसियों को नियमित योग कराता हूँ।

  • वैभव दुबे "विशेष"

    बहुत ही अच्छे प्रयास हैं आपके
    जिससे समस्त विश्व को लाभ मिल
    सकता है।आभार

    • विजय कुमार सिंघल

      हार्दिक धन्यवाद बंधु !

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