गजल : पहला प्यार हिन्दी
जूझती थी बेड़ियों से, जो कभी लाचार हिन्दी।
उड़ रही पाखी बनी वो, सात सागर पार हिन्दी।
गर्भ से संस्कृत के जन्मी, कोश संस्कृति का रचाया
संस्कारों को जनम दे, कर रही उपकार हिन्दी।
जान लें कानूनविद, शासन पुरोधा, राज नेता
राज में औ काज में है, आदि से हक़दार हिन्दी।
जो गुलामी दे गए थे, क्यों सलामी दें उन्हें हम
क्यों उन्हें सौंपें वतन, जिनको नहीं स्वीकार हिन्दी।
जो करे विद्रोह, द्रोही देश का, उसको कहेंगे
हाथ में लेकर रहेगी, अब सकल अधिकार हिन्दी।
है यही ताकत हमारे, स्वत्व की, स्वाधीनता की
काटने बाधाओं को, बन जाएगी तलवार हिन्दी।
मान हर भाषा को देता, यह सदय भारत हमारा
पर ज़रूरी है करें सब, गर्व से स्वीकार हिन्दी।
क्या नहीं होता कलम से, ठान लें जो आप मित्रो!
अब कलम हर हाथ में हो, साथ पैनी धार हिन्दी।
ताज है यह भारती का, नाज़ भारत वासियों को
हो चुकी भारत के जन-गण, मन का पहला प्यार हिन्दी।
— कल्पना रामानी
बहुत खूबसूरत गजल !