ग़ज़ल
सलीकों में लपेटकर न हम रख पाये ज़िंदगी..
हमने नियम क़ानून की किताब ना पढ़ी।
चलते रहे जँहा भी दिल ने कह दिया चलो…
और झुक गए जँहा भी दिल ने कर ली बंदगी।
हमसे न हो सका कि किसी आस को सताएं..
दरिया से हूँ जुदा तो प्यास की कदर भी की।
तनहा जरूर थे मगर मग़रूर नही थे हम..
खुद को बना लिया था हमने खुद से अजनबी।
जो लोग जानते हैं वो कहते हैं खुश रहो यूँ ही..
पत्थर के इस शहर में हमें कोई जानता नहीं।
अबऔर कितना “रागिनी” साज़ों में हो दफ़न..
एक रोज़ खुद में हमको भीें ढँक लेगी ये ज़मी।
रागिनी त्रिपाठी
सुंदर गज़ल