आत्मकथा

आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 39)

गौड़ साहब का स्थानांतरण

सन् 2008 में बांगिया जी का प्रोमोशन हुआ और वे सहायक महा प्रबंधक बन गये। हम सबको आशा थी कि अब वे संस्थान से कहीं और भेज दिये जायेंगे। लेकिन पता नहीं कैसे प्रधान कार्यालय ने गौड़ साहब का स्थानांतरण मुम्बई कर दिया और उनके स्थान पर बांगिया जी को हमारे संस्थान का प्रमुख बना दिया। जिस दिन यह आदेश आया, तब तक गौड़ साहब की विदाई नहीं हुई थी, लेकिन बांगिया जी इतने उत्साही हैं कि उनके रहते हुए ही उन्होंने संस्थान प्रमुख के रूप में सभी अधिकारियों की बैठक ले डाली।

गौड़ साहब के जाने से मुझे बहुत धक्का लगा, क्योंकि उनके रहते हुए बांगिया जी नियंत्रण में रहते थे। अब सर्वेसर्वा बन जाने पर यह तय था कि वे मुझे परेशान करने की हर सम्भव कोशिश करेंगे। वैसा हुआ भी, परन्तु मैं पहले से ही सावधान था और अपनी ओर से कोई ऐसा मौका नहीं देता था कि उनको उँगली उठानी पड़े। वैसे प्रत्यक्ष रूप में वे मुझसे कुछ नहीं कहते थे, लेकिन पीठ पीछे मेरी जड़ काटने की कोशिश करते थे।

गमलों का मामला

कुछ समय बाद बांगिया जी को मेरे खिलाफ पहला ‘मामला’ मिल ही गया। हमारे संस्थान में एक माली रहता था। वह लाॅन और उसमें उगाये गये पेड़-पौधों की देखभाल करता था। एक दिन हमारी श्रीमतीजी, जो मुझे सुबह आॅफिस छोड़ने आयी थीं, ने उससे कहा कि हमें फूलों वाले दो पौधे दे दो। हम उसे अपने खाली गमलों में लगा देंगे। माली ने कहा कि पूरे गमले ही ले जाओ। यह सुनकर उन्होंने फूलों वाले दो गमले गाड़ी में रखवा लिये और कहा कि हम खाली गमले ले आयेंगे।

इस बात की जानकारी जाने कैसे बांगिया जी को हो गयी और उन्होंने मुझ पर गमलों की चोरी का इल्जाम लगा दिया। उन्होंने सीधे तो मुझसे कुछ नहीं कहा, लेकिन अन्य अधिकारियों को इसकी जानकारी दे दी और माली को भी बहुत डाँटा। जब मुझे पता चला, तो मुझे बहुत बुरा लगा। गमले जैसी चीजें पहले भी संस्थान से दूसरे उच्च अधिकारियों के घरों पर जाती रही थीं। दस-बीस रुपये के गमले कोई ऐसी चीज नहीं है कि उसकी चोरी का मामला बनता हो। फिर भी मामला समाप्त करने के लिए मैंने वे दोनों गमले वापस संस्थान में रखवा दिये और साथ में चार नये खाली गमले खरीदकर संस्थान में माली को दे दिये कि इनमें हमारे लिये फूलों के पौधे लगा देना। पौधे खरीदने के लिए पैसे भी मैंने माली को दे दिये, जो 10-20 रुपये ही होते थे।

जब गमले वापस रखने की खबर बांगिया जी को मिली, तो वे आग बबूला हो गये और रात के समय ही ड्राइवर और केयर टेकर को 4 पौधे वाले गमले देकर कहा कि इनको सिंघल के घर दे आओ तथा उनसे यह भी कह दिया कि यदि वह लेने से मना करें, तो गमले वहीं छोड़कर चले आना। जब वे हमारे घर आये, तो मैंने स्वाभाविक रूप से मना किया, तो वे कहने लगे कि हमारी नौकरी का सवाल है, आप इनको रख लीजिए, फिर भले ही वापस कर देना। यह सुनकर हमने गमले रख लिये और अगले दिन प्रातः ही उनको वापस छोड़ आये।

इधर बांगिया जी मुझे फँसाने के लिए यह सारा मामला प्रधान कार्यालय लिखकर भेजना चाहते थे, ताकि मेरी इमेज खराब हो। तभी उनकी अपने किसी मित्र अधिकारी से बात हुई, तो उसने बांगिया जी से कहा कि यदि ऐसे तुच्छ मामले प्रधान कार्यालय लिखकर भेजोगे, तो सिंघल का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा, लेकिन तुम्हारा खूब मजाक बनेगा। तब बांगिया जी की अक्ल ठिकाने आयी और यह मामला समाप्त हुआ। लेकिन इसका यह परिणाम अवश्य हुआ कि बांगिया जी के लिए मेरे मन में जो थोड़ी-बहुत इज्जत बची थी, वह भी समाप्त हो गयी और मैं अधिक सावधान रहने लगा।

बांगिया जी की मनमानी

लेकिन कहावत है कि कुत्ते की पूँछ कभी सीधी नहीं हो सकती, चाहे उसे वर्षों तक नली में दुबकाये रखा जाये। इसी तरह बांगियाजी का स्वभाव तब भी नहीं बदला और वे मौका देखकर मेरा अपमान करने की कोशिश करते थे। यदि मैं अपनी ओर से कोई निर्णय लेता था, तो वे तत्काल उस पर उँगली उठाते थे, भले ही वह कार्य सही किया हो। गौड़ साहब के समय संस्थान को पूरी तरह लगभग मैं ही सँभाल रहा था। संस्थान के अधिकांश कार्यों में मेरा दखल था। वास्तव में विभिन्न कार्यों के लिए हमने कमेटियाँ बना रखी थीं, जिनमें दो या तीन अधिकारी थे। मैं उन सभी कमेटियों का प्रभारी था, यानी सभी कमेटियों के कार्यों पर नजर रखता था।

उन्होंने पहला काम तो यह किया कि सारी कमेटियों के कामों के लिए मुझे जिम्मेदार ठहराना शुरू कर दिया। उदाहरण के लिए, इनवेंट्री कमेटी को सारे सामान की सूची बनानी थी और सुधारनी थी। इस कमेटी में जो अधिकारी थे, बांगिया जी ने उनसे तो कुछ नहीं कहा और मुझसे कहने लगे कि दो दिन में पूरी सूची दो, नहीं तो प्र.का. को रिपोर्ट कर दूँगा। खैर, किसी तरह मैंने सूची बनाकर उनको दे दी। इसी तरह एकाउंट के इंस्पेक्शन के समय जो कमियाँ बतायी गयी थीं, उनको दूर करने का काम एकाउंट कमेटी का था, लेकिन बांगिया जी ने यह जिम्मेदारी भी मेरे ऊपर डाल दी। किसी तरह मैंने यह भी निपटाया। ऐसे एक दो नहीं, कई मामले हुए। यदि मेरी जगह कोई दूसरा होता, तो ऐसे वातावरण में तनावग्रस्त हो जाता, परन्तु मैं योगाभ्यास करता था, इसलिए तनाव से यथासम्भव बचा रहता था।

जब उन्होंने देखा कि यह तो सारे काम कर डालता है, तो धीरे-धीरे वे उन कामों को मुझसे छीनने लगे, जो मैं पिछले तीन-चार साल से कर रहा था। उदाहरण के लिए, मैं शाखाओं से आने वाले पत्रों और डाटा की सीडी वगैरह का रखरखाव करता था। पत्रों को विभिन्न अधिकारियों को देकर शाखाओं की समस्याओं को हल कराता था। बांगिया जी ने सबसे पहले यह कार्य अपने हाथ में ले लिया। वे डाक आने पर खुद ही खोल लेते थे और वहीं से अधिकारियों को पकड़ा देते थे। कई बार तो वे सीडी और पत्रों पर क्रम संख्या भी नहीं डालते थे, जिससे आगे चलकर समस्याएँ उत्पन्न होने लगीं। यह काम हाथ से निकल जाने पर हालांकि मुझे बहुत बुरा लगा, लेकिन मैंने कुछ नहीं कहा और उचित समय की प्रतीक्षा करने लगा।

हमारे संस्थान में हर दो साल बाद बाहर से कोई अधिकारी इंस्पेक्शन करने आते थे। कई बार उनको बाहर अच्छे होटल में खाना खिलाया जाता था। जब गौड़ साहब थे, तो मैं हर बार उनके साथ जाता था। लेकिन बांगिया जी ने मेरे साथ पहली बार ऐसा किया कि जब उनको खाना खिलाने ले गये, तो मुझसे जूनियर कई अधिकारियों को साथ में ले गये, लेकिन मुझे छोड़ गये, जबकि इंस्पेक्शन की रिपोर्ट पर मैं ही संस्थान की ओर से हस्ताक्षर करता था। स्वाभाविक रूप से मुझे एक बाहरी अधिकारी के सामने इस प्रकार उपेक्षित होने पर अपमान अनुभव हुआ। उस समय तो मैं चुप रहा, लेकिन जब वे लौटकर आये, तो मैंने पूछ लिया कि मुझे क्यों नहीं ले गये? तो वे बोले कि हम नाॅन-वेज (अर्थात् माँस) खाने गये थे, इसलिए आपको नहीं ले गये। यह बात भी झूठ थी, क्योंकि जो बिल उन्होंने जमा किया, वह अनुपम स्वीट्स एंड रेस्टोरेंट का था, जहाँ केवल शाकाहारी भोजन मिलता है। मैं चाहता तो इसी बात पर उनके झूठ की पोल खोल सकता था, परन्तु खाने-पीने की चीजों के लिए मैं झगड़ा नहीं करना चाहता था, इसलिए चुप रहा।

जिन बातों के बारे में बांगिया जी कुछ नहीं जानते थे, उनमें भी अपनी ही मनमानी चलाते थे और सारे निर्णय बिना मुझसे सलाह लिये कर लेते थे। उदाहरण के लिए, एक बार उन्होंने तय कर लिया कि प्रशिक्षणार्थियों को जो लैपटाॅप दिये जाते हैं, उनके साथ माउस भी देना चाहिए, क्योंकि सबको माउस से कार्य करने की आदत होती है। यह एक अच्छा निर्णय था, लेकिन इसका पालन बुरी तरह किया गया। बांगिया जी अपने उत्साह में बिना यह पूछे कि लैपटाॅपों में कैसा माउस लगता है, दूसरी तरह के 10 माउस खरीद लाये। जब मुझे पता चला कि उन्होंने क्या बेवकूफी की है, तो मैंने उनका ध्यान इस ओर खींचा और सारे माउस स्वयं बदलवाकर लाया।

बेचारा पढ़ा-लिखा चपरासी

हमारे आॅफिस में जो कम्पनी रखरखाव की सेवाएँ देती थी, उसे आॅफिस के कार्य के लिए चपरासी भी देना पड़ता था, क्योंकि संस्थान में कोई चपरासी नहीं था। एक बार हमारा चपरासी, जो बहुत कम पढ़ा था, वह काम छोड़कर चला गया। उसकी जगह जो आया, वह इंटर तक पढ़ा हुआ था और अंग्रेजी भी जानता था। वह काम अच्छा करता था और मैं उससे काफी संतुष्ट था। परन्तु पढ़ा-लिखा होने का गुण ही उसके लिए अभिशाप बन गया, क्योंकि बांगिया जी चाहते थे कि वह किसी भी कागज को न पढ़े। यहाँ तक कि उसे यह भी पता न चले कि उन्होंने कितने रुपये बैंक से निकाले हैं। इस कारण बैंक शाखा का जो कार्य चपरासी किया करता था (रुपये वगैरह लाने का) उस काम के लिए खुद केयर टेकर को जाना पड़ता था। आगे चलकर बांगिया जी उस चपरासी प्रदीप से इतना चिढ़ने लगे कि उन्होंने केयर टेकर को उसे हटाने का स्पष्ट आदेश दे दिया। बेचारा प्रदीप बहुत दुःखी होकर गया। मुझे भी बड़ा दुःख हुआ, लेकिन क्या कर सकता था?

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

8 thoughts on “आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 39)

  • Man Mohan Kumar Arya

    आज की क़िस्त पढ़कर बांगिया जी के आपके प्रति अमानवीय व्यव्हार का ज्ञान हुआ। जैसी करनी वैसी भरणी, या तो उन्हें इस अनुचित व्यवहार की ईश्वर से सजा मिल चुकी होगी या आगे मिलेगी। आपने जिस सहनशीलता की परिचय दिया, वह प्रशंसनीय है। महर्षि दयानन्द जी ने कहा है कि सबसे प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य व्यवहार करना चाहिय। यह आदर्श सिद्धांत है परन्तु सरकारी व अन्य कार्यालयों में हम इसका प्रयोग नहीं कर सकते। परमात्मा ही ऐसे लोगो को इसकी सजा देता है। आपका हार्दिक धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार मान्यवर ! आपका कहना सत्य है। उनको ईश्वर ने बहुत कठोर दंड दिया है। इसके बारे में आगे पढ़िएगा।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , यह बांगिया साहब की बात को पड़ के हंसूं या कुछ कहूँ समझ नहीं आती , ऐसे लोग हर जगह होते हैं जो ना तो खुद पर्सन रहना चाहते हैं ना दूसरों को पर्सन देखना चाहते हैं .

    • विजय कुमार सिंघल

      सही कहा भाईसाहब ! ऐसे लोग हर जगह होते हैं। पर अपने बैंक में भी बांगिया जी जैसा मुझे कोई नहीं मिला। सब मेरा सम्मान ही करते हैं।

  • महातम मिश्र

    सादर प्रणाम आदरणीय विजय कुमार सिंघल जी, आप की आत्मकथा एक सत्य घटना है जो हर इन्शान के जीवन में कुछ इसी तरह घटता चला जाता है कहीं सर्वोपरिता से क्षुब्धता तो कहीं चपरासी की पढाई इत्यादि जैसी क्षुब्धता…..अच्छा लगता है जब भी आप को पढता हूँ और लगता है कि जीवन की राह का वर्णन हर उस कलम को जरुर करना चाहिए जिसके पास यादों की श्रृंखला हुबहू तैयार हों……सादर बधाई मान्यवर

    • विजय कुमार सिंघल

      हार्दिक धन्यवाद, बंधु !

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    छोटी सी छोटी बातों को बारीकी से याद रखना और लिखना बहुत बड़ी बात है
    यादों के सफर में हम संग चल रहे हैं
    अच्छा लग रहा है

    • विजय कुमार सिंघल

      हार्दिक धन्यवाद, बहिन जी !

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