आईना बोलता है
ऊत प्रदेश (उल्टा प्रदेश) के प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों की दुर्दशा पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने संज्ञान लेते हुए निर्देश दिया है कि जनप्रतिनिधियों, सरकारी अधिकारियों, न्यायाधीशों और अन्य उच्च पदों पर आसीन पदाधिकारियों के बच्चे सरकारी स्कूलों मे ही पढ़ें। – दैनिक जागरण, 19.08.15.
प्रश्न यह नहीं है कि क्यों ? प्रश्न यह है कि इसे सुनिश्चित कैसे किया जाय ? और किन स्कूलों की बात हो रही है ? जिनकी ईमारतें या तो जर्जर है, या हैं ही नहीं ! जिनमें आज भी शौचालय की सोच नहीं पनपी ! जहाँ पढ़ाने के लिये शिक्षकों का टोटा है ! और जो हैं भी उनकी गुणवत्ता पर हजारों प्रश्नचिन्ह लगे हुए हैं ! जिनके गुरु अपने शिष्यों से गाली गलौज में बात करते हैं और अपनी बीड़ी व दारू उन्हीं से मंगवाते हैं ! जिनके सिलेबस अर्थात पाठ्यक्रम में हर तरह की विसंगतियों है !
सोचता हूँ कि जिन न्यायाधीशों ने यह संज्ञान लिया है, क्या वे अपने बच्चों को ऐसे स्कूलों में पढ़ाएँगे ? सरकारी चपरासी तक तो इन स्कूलों को एवोइड करते हैं। फिर, प्रश्न यह उठता है कि प्राइवेट स्कूलों का क्या होगा, जिन्हें हमारे जनप्रतिनिधियों और नौकरशाही ने बड़े जतन से काले धन को सफेद करने की गरज़ से खड़ा किया है, और अनाप-शनाप फीस लगा कर करमुक्त आय डकार रहे हैं !
एक समय था जब राजकीय माध्यमिक और उच्च माध्यमिक विद्यालयों कि साख होती थी, और इनसे निराश होने के बाद ही लोग प्राइवेट स्कूलों की तरफ रुख करते थे । वहाँ भी फीस वही होती थी जो राजकीय स्कूलों की होती थी। सारे प्रदेश का पाठ्यक्रम एक ही होता था, आज की तरह नहीं की चार चार बोर्ड लागू हैं जिनके पाठ्य की विषयवस्तु भगवान भरोसे है। देश की कौन कहे प्रदेश में ही एकरसता नहीं मिलती। फिर यह पाठ्यविषय सरकार बदलने के साथ साथ बदल भी जाया करता है। पाठ्यपुस्तकों के बारे में तो जितना भी कहा जाए कम है।
कुछ बुद्धिजीवियों का मानना है कि जब तंत्र ही उनके हाथ में हो जिन्हें शिक्षा से कोई लेना-देना नहीं है तो शिक्ष का स्तर तो गिरेगा ही। परन्तु मुझे तो यह राजनीतिज्ञों की एक सोची समझी साज़िश प्रतीत होती है। सीधी सी बात है । पढ़े लिखे समाज को वोट के लिये बर्गलाना और उन पर शासन करना आसान नहीं होता है ।