आर्यसमाज के यशस्वी साहित्यकार प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु
ओ३म्
आज चिन्तन करते समय हमारा ध्यान आर्य साहित्य के लेखन, सम्पादन, उर्दू से हिन्दी अनुवाद व प्रकाशन में क्रान्ति करने वाले आर्यजगत के वयोवृद्ध विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी की ओर गया तो ध्यान आया कि वर्तमान में उर्दू, अरबी व फारसी का ज्ञान रखने वाले विद्वानों में प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी न केवल अग्रणीय है अपितु उनके समान हमें उन जैसा दूसरा कोई विद्वान दिखाई ही नहीं देता। हम जानते हैं कि आर्यसमाज वेद और वैदिक साहित्य को प्रमाणित मानता है और वह सब केवल संस्कृत भाषा में ही है। उर्दू, फारसी व अरबी भाषा में आर्यसमाज की स्थापना से पूर्व का कोई वैदिक धर्म विषयक प्रमाणिक साहित्य नहीं है। सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि महर्षि दयानन्द जी की कालजयी कृतियां हैं जिन्हें उन्होंने संस्कृत में लिखने की योग्यता होने पर भी देश व जाति के हित में आर्य भाषा हिन्दी में लिखा है। देश के स्वतन्त्र होने के बाद उर्दू का प्रभाव व पठन-पाठन कम होकर नाम मात्र का रह गया। शायद इसी कारण आर्यसमाज के अनेक विद्वानों ने उर्दू, अरबी व फारसी के अध्ययन को गौण समझा व माना है। उन्होंने अंग्रेजी पर तो पर्याप्त श्रम किया परन्तु उर्दू आदि की निश्चय ही उपेक्षा की। यह उपेक्षा इस कारण से हमें हानिकर प्रतीत होती है कि महर्षि दयानन्द के 30 अक्तूबर, सन् 1883 को मुक्तिधाम जाने के बाद पंजाब में उर्दू भाषा का अत्यधिक प्रभाव, पठन-पाठन, प्रचार व प्रसार रहा है। इस कारण हमारे अधिकांश विद्वान उर्दू, फारसी व अरबी भाषाओं के अच्छे जानकार रहे हैं और उन्होंने यहां की आर्य जनता के लाभार्थ उर्दू में ही प्रभूत आर्य साहित्य की रचना की है। पंजाब की उर्दू जानने व समझने वाली जनता के लिये हमारे इन आर्य विद्वानों सत्यार्थ प्रकाश सहित वेदों भाष्य के कुछ भाग का अनुवाद भी उर्दू में किया व कुछ अन्य मौलिक साहित्य जिनमें भजन आदि भी सम्मिलित हैं, का लेखन व प्रकाशन हुआ है। महर्षि दयानन्द जी के बाद जिन विद्वानों ने संस्कृत व हिन्दी के साथ-साथ उर्दू का साहित्य लेखन, सम्पादन व प्रचार-प्रसार आदि कार्यों में उपयोग किया उनमें हम स्वामी श्रद्धानन्द, रक्तसासक्षी पं. लेखराम जी, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज, पं. चमूपति, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती, महाशय कृष्ण, महात्मा नारायण स्वामी, मेहता जैमिनी, पं. गंगा प्रसाद उपाध्याय, कुंवर सुखलाल जी, स्वामी अमरस्वामी, पं. शान्ति प्रकाश जी, मास्टर लक्ष्मण आर्य, प्रो. उत्तमचन्द शरर जी आदि विद्वानों को सम्मिलित कर सकते हैं। इन विद्वानों मे से अनेकों ने उर्दू के माध्यम से साहित्य की साधना व सेवा की है। हम यह भी जानते है कि आरम्भ में आर्य जगत के अनेक पत्र व पत्रिकायें यथा सद्धर्म प्रचारक, आर्य मुसाफिर, आर्य गजट, प्रकाश, मिलाप व प्रताप आदि उर्दू में ही प्रकाशित होते रहे हैं। अतः यह स्वाभाविक ही है कि आर्यसमाज की बहुमूल्य इतिहास विषयक सामग्री हमारे तत्कालीन उर्दू के पत्रों व ग्रन्थों में सुरक्षित व उपलब्ध है। जो विद्वान उर्दू नहीं जानता, वह उस दुर्लभ व महत्वपूर्ण सामग्री से लाभान्वित नहीं हो सकता। हमने जिन विद्वानों के नाम लिखे हैं, उसी परम्परा में हमारे ऋषि भक्त विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी हैं। आपने अपने उर्दू व फारसी आदि भाषा ज्ञान तथा तप व पुरूषार्थ पूर्वक साहित्यिक अनुंसधान कार्य कर दुर्लभ व महत्वपूर्ण आर्य साहित्य में सर्वाधिक वृद्धि की है और ऐसा कीर्तिमान बनाया है कि जिसे प्राप्त करना भविष्य के किसी विद्वान के लिए स्यात् सम्भव न हो।
प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने महर्षि दयानन्द और आर्य समाज से संबंधित समस्त उर्दू साहित्य, ग्रन्थ, पुस्तक व पत्र-पत्रिकाओं आदि का आलोडन कर बहुमूल्य साहित्य प्रदान कर आर्य जगत की जो सेवा की है उससे उन्होंने आर्यसमाज व आर्य जाति के इतिहास में अपना अमर स्थान बना लिया है। उनकी सेवाओं से आर्यसमाज धन्य हुआ है। हम आर्यसमाज के समस्त विद्वानों व प्रचारकों का आवाह्न करते हैं कि वह प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी की साहित्य सेवाओं का उचित मूल्यांकन करें और उनका सार्वजनिक सम्मान न सही, एक पत्र लिखकर ही उन्हें कहें कि आपने साहित्य के माध्यम से जो अपूर्व व प्रभूत सेवा की है उसके लिए आर्यसमाज और हम आपके आभारी हैं और आपके व आपके परिवार के लिए हार्दिक शुभकामनायें व्यक्त करते हैं। हमें लगता है कि यह कार्य अत्यन्त आवश्यक है जो प्रत्येक आर्य समाज के विद्वान व सदस्य को अपने सभी पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर अवश्य करना चाहिये, ऐसा हम अनुभव करते हैं। यदि श्री जिज्ञासु जी किसी कारण आर्यसमाज को न मिले होते तो आर्यसमाज उनके द्वारा किये गये इन सभी महत्वपूर्ण कार्यों से वंचित रहता। इसके लिए ईश्वर का कोटिशः धन्यवाद है।
प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी वर्तमान के अन्य आर्य विद्वानों से काफी कुछ भिन्न प्रकार का व्यक्तित्व रखते हैं। वह महर्षि दयानन्द के प्रति सर्वात्मा समर्पित हैं। ईश्वर और वेद भक्ति, महर्षि दयानन्द का शिक्षामय जीवन, दयानन्दजी सहित पूर्व ऋषियों व विद्वानों का साहित्य और आर्य महापुरूषों के प्रेरणाप्रद जीवन ही उनकी शक्ति का मुख्य आधार है। इससे प्राप्त शक्ति से ही उन्होंने आर्यसमाज में अपूर्व व प्रभूत साहित्य सृजन का कार्य करके नया कीर्तिमान बनाया है। उन्होंने जितनी स्वलिखित, अनुदित व सम्पादित साहित्यिक सामग्री प्रदान की है, उससे वह वर्तमान के आर्यजगत के सभी विद्वानों में प्रथम स्थान पर खड़े दिखाई देते हैं। विषय की भिन्नताओं के कारण सभी विद्वानों का अपना-अपना महत्व हम समझते हैं परन्तु एक स्कूल के शिक्षक के रूप में सेवा व पारिवारिक दायित्व के साथ वेद व आर्यसमाज के प्रचार, लेखन, अनुसंधान व अनुवाद आदि कार्यों को साथ-साथ निभाते हुए साहित्य का जो विशाल भण्डार हमारे सामने प्रस्तुत किया है, वह आने वाली पीढि़यों के मार्गदर्शन और प्रेरणा का स्रोत बनेगा। आरम्भ से ही हमारा यह विचार रहा है कि वैदिक विद्वान किसी समूह विशेष का नहीं होता। ‘विद्वान सर्वत्र पूज्यते’ के अनुसार विद्वान सबका पूज्य होता है। इसी के आधार पर हम प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी को भी आर्यसमाज की एक महान विभूति और समाज के सभी अनुयायियों व विद्वानों का पूज्य मानते हैं। हमने यदा-कदा यह भी अनुभव किया है कि कुछ विद्वानों में एक दूसरे के प्रति राग व द्वेष होता है। यह उचित नहीं है। हम महर्षि दयानन्द के शिष्य हैं और हमें उनका ही अनुकरण करना चाहिये। राग, द्वेष व पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर सभी विद्वानों का अन्य सभी विद्वानों के प्रति सम्मान, आदर, प्रशंसा, वन्दना का भाव होना चाहिये तथा प्रत्येक को परस्पर पे्ररक व सहयोगी होना चाहिये। हम जिज्ञासु जी को ऐसा ही मानते हैं और आशा करते हैं कि महर्षि दयानन्द के प्रति समर्पित विद्वानों के प्रति वह व सभी विद्वान ऐसा ही भाव रखते हैं व रखेंगे।
प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु सम्प्रति 84 वर्ष की वय पूरी कर वयोवृद्ध हैं फिर भी वह एक युवक की तरह लेखन, अनुवाद, सम्पादन व प्रचार कार्यों में लगे हुए हैं। हमें जानकारी मिली है कि सम्प्रति वह मेहता जैमिनी जी की उर्दू पुस्तक ’गोमाता प्राणादाता’ का अन्तिम ईक्ष्यवाचन कर रहे हैं। यह ग्रन्थ ‘विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, नईसड़क, दिल्ली’ से प्रकाशित होकर कुछ ही दिनों, श्रावणी पर्व अथवा कृष्णजन्माष्टमी पर्व पर उपलब्ध होने की सम्भावना है। जिज्ञासु जी ने इस उर्दू पुस्तक का हिन्दी में अनुवाद कर गोमाता के महत्व पर उपलब्ध अन्य नवीन सामग्री का समावेश भी उसमें कर दिया है। इस पुस्तक के अनुवाद व प्रकाशन की प्रेरणा हमें प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु लिखित व प्रकाशित मेहता जैमिनी के जीवनचरित को पढ़ते हुए हुई थी जिसके लिए हमने प्रकाशक श्री अजय आर्य जी से निवेदन किया था। जिज्ञासु जी सतत साहित्य के अनुसंधान तथा ऊहापोह में लगे रहते हैं। महर्षि दयानन्द के एक भक्त ठाकुर मुकुन्द सिंह द्वारा सन् 1890 के लगभग उर्दू में प्रकाशित एक 200 पृष्ठीय दुर्लभ ग्रन्थ को भी उन्होंने अलीगढ़ के आर्य बन्धुओं की सहायता से प्राप्त कर लिया है। इस पुस्तक में एक पूरा अध्याय गोमाता के महत्व पर है। इसके अनुवाद कार्य को आप आरम्भ करने वाले हैं। एक आर्यबन्धु द्वारा महाराणा रणजीत सिंह जी पर लिखित पुस्तक भी अपने प्राप्त की है। इस आर्यबन्धु ने अपनी 18 वर्ष की आयु में महाराणा रणजीत सिंह के दर्शन किये थे। इस ग्रन्थ व इसमें विशेषकर आर्यसमाज के लिए लाभप्रद स्थलों के अनुवाद व प्रकाशन की भी आपकी योजना है। इसके साथ ही आप आचार्य वेदपाल जी द्वारा सम्पादित महर्षि दयानन्द के पत्र व विज्ञापनों के अद्यतन संशोधित प्रकाशनाधीन संस्करण के प्रूफ संशोधन व उन पत्रों को महर्षि के जीवन चरित्रों आदि से मिलानकर उसे पाठकों के लिए अधिकाधिक उपयोगी बनाने के कार्य में भी जुटे हैं। इससे पूर्व यही कार्य स्वामी श्रद्धानन्द जी, पं. भगवद्दत्त जी, पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी तथा श्री मामराज जी ने भी किया है। हम यह भी कहना चाहेंगे कि परोपकारिणी सभा को इसका प्रकाशन करते समय इस बात पर भी ध्यान देना चाहिये कि इससे रामलाल कपूर ट्रस्ट के हितों पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े जिसने महर्षि दयानन्द के पत्र-व्यवहार का प्रकाशन चार भागों में किया हुआ है।
प्रा. जिज्ञासु जी पाक्षिक पत्र ‘परोपकारी, अजमेर’ में ‘कुछ तड़प–कुछ झड़प’ नाम से स्तम्भ लिखते हैं। इस शीर्षक से आप प्रत्येक अंक में कुछ प्रमुख ऐतिहासिक, विलुप्त, दुर्लभ व नई जानकारी से पाठको को अवगत कराते हैं। इस बार के अंक में आपने बताया है कि महर्षि दयानन्द अंग्रेजी न्यायालय का अपमान करने वाले पहले भारतीय थे। इसका उदाहरण देते हुए उन्होंने लिखा है कि महर्षि दयानन्द जी सन् 1877 के सितम्बर–अक्टूबर मास में जालंधर पधारे थे। तब आपने एक सार्वजनिक सभा में अपनी निर्भीक वाणी से दुखिया देश का दुखड़ा रखते हुए अंग्रेजी राज के अन्याय, पक्षपात तथा उत्पीड़न को इन शब्दों में व्यक्त किया था-‘‘यदि कोई गोरा अथवा अंग्रेज किसी देशी (भारतीय) की हत्या कर दे तथा वह (हत्यारा) न्यायालय में कह दे कि मैंने मद्यपान कर रखा था तो उसको छोड़ देते हैं।” इसी लेख से यह भी ज्ञात होता है कि आपकी दो नई पुस्तकें ‘इतिहास की साक्षी, महर्षि दयानन्द सरस्वती और पण्डित श्रद्धाराम फिल्लौरी के सम्बन्ध’ और ‘प्रसाद’ (उर्दू के महाकवि प्रो. तिलोकचन्द ’महरूम’ के अपने एक प्रसिद्ध शिष्य महाकवि ‘महाशय जैमिनी’ शरशार को लिखे पत्रों का संग्रह) प्रकाशित हुई हैं। परोपकारी के अगस्त-द्वितीय अंक में यह महत्वपूर्ण जानकारी भी दी गई है कि स्वामी श्रद्धानन्द जी द्वारा महाराष्ट्र के ‘सूपा’ में गुरूकुल स्थापित किया गया था। विगत माह प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु अपनी यात्रा में यहां पधारे। इस गुरूकुल, सूपा में कभी महान देशभक्त नेताजी सुभाष चन्द्र बोस आकर रहे थे। यह कुछ संक्षिप्त उदाहरण हमने दिये हैं। पत्रिका में उनके दोनों लेख अतीव महत्वपूर्ण हैं। शायद अन्य विद्वानों से ऐसे लेखों की अपेक्षा नहीं की जा सकती।
जिज्ञासु जी में आर्यसमाज के कार्यों के लिये जो दीवानापन और जुनून है, उससे जुड़ी घटना को प्रस्तुत कर हम लेख को विराम देंगे। जिज्ञासु जी का विगत 11 सितम्बर, 2014 को डा. धर्मवीर जी आदि के साथ केरल की प्रचार यात्रा पर जाने का कार्यक्रम था। 9 सितम्बर को आप कुछ विचारों में खोए हुए अबोहर में पैदल कहीं जा रहे थे। वहीं आसपास कुछ लोग झगड़ रहे थे। अचानक एक लकड़ी का टुकड़ा तेज गति से आकर आपके सिर से टकराया जिससे रक्त प्रवाह होने लगा। घाव काफी गहरा था। डाक्टरों ने आठ टांके लगाकर स्वास्थ्य लाभार्थ आपको पूर्ण विश्राम की सलाह दी। इस स्थिति में भी आप घर पर रूके नहीं और अगले दिन 10 सितम्बर को दिल्ली आ गये जबकि आपकी धर्मपत्नी जी ने आपको बहुंत समझाया। 14 सितम्बर, 2015 को आपने केरल के कार्यक्रम में भाग लिया। केरल में चिकित्सकों ने आपकी चोट की मरहम पट्टी की और इस स्थिति में यात्रा करने को स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बताया। इस पर भी आप केरल से जोधपुर होते अबोहर वापिस लौटे और लेखन व प्रवचन आदि का कार्य भी निरन्तर करते रहे। यह महर्षि व पं. लेखराम जी वाला जज्बा आपमें है जिससे आपकी ईश्वर-वेद व ऋषि भक्ति की झलक मिलती है। सभी ऋषिभक्तों को जिज्ञासु जी के जीवन की इस घटना से प्रेरणा लेनी चाहिये। इस वर्ष के आरम्भ में प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी श्री लक्ष्मण जिज्ञासु, गाजियाबाद के पुत्र के नामकरण संस्कार में सम्मिलित हुए थे। अनेक अन्य आर्य विद्वान भी इस आयोजन में उपस्थित थे। इस अवसर पर डा. धर्मवीर जी ने जिज्ञासु जी को आर्यसमाज के भीष्म पितामह कहकर सम्बोधित किया। जिज्ञासु जी के लिए प्रयुक्त यह शब्द व उपधि उचित ही है। उन्होंने जीवन भर पं. लेखराम व अन्य प्रसिद्ध विद्वानों की परम्परा का निर्वाह किया है। उनके उत्तराधिकारी की आर्यसमाज को प्रतिक्षा है। ईश्वर से हमारी विनती है कि वह जिज्ञासु जी को स्वस्थ रखें और वह दीर्घायु हों तथा इसी उत्साह से अनुसंधान, लेखन, सम्पादन, अनुवाद व प्रकाशन का कार्य करते हुए ऋषि ऋण चुकाते रहे। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं।
–मनमोहन कुमार आर्य