जरूरी था। गजल
गिरे जो लड़खड़ा के अगर संभलना भी जरूरी था
वजह ठोकर की कदमों से मसलना भी जरूरी था
सुबह तो रात में ढलती रही और आँख न खोली
पर चिरागों का अंधेरों में जलना भी जरूरी था
किस्मत को लगा इल्जाम छाया में क्यूँ जा बैठे
ठण्डी थी रेत कदमों का चलना भी जरूरी था
बना के दिल को पत्थर क्या हासिल कर सका कोई
सख्त तो बर्फ भी होती पिघलना भी जरूरी था
बदलते रहे नकाब ताउम्र पर सीरत नहीं बदली
तो ऐसी रूह का फिर जिस्म बदलना भी जरूरी था
मिट जाते फासले ‘वैभव’ मंजिल दौड़कर आती
हिम्मत की लाश का दिल में मचलना भी जरूरी था