कविता

यादों का सहारा

कल शाम,
मैं गुमसुम सा,
अपने घर के अन्दर बैठा था ,
अचानक दरवाजे पर दस्तक हुई,
कुछ शोर सा सुनाई दिया ….
मैंने देखा. बहुत सी पुरानी यादें
मेहमान बन कर आई हैं,
मैंने समझाया, मेरा घर बहुत छोटा है,
कैसे सबको भीतर ले जाऊँगा,
यादें बोली हम घर में नहीं
आपके दिल में रहने आई है
आपका दिल बहुत विशाल है,

मैंने उन यादों को दिल में बिठा लिया,
सारी रात मैं यादों में उलझा रहा ,
सो न पाया..सुबह सवेरे यादों ने हाथ हिलाया,
नमस्ते, अब हम चलते हैं,
मैंने हाथ जोड़ कर निवेदन किया–यहीं रुक जाओ,
अब इन यादों का ही तो सहारा है,
वर्ना इस बेरहम दुनिया में कौन हमारा है.

जय प्रकाश भाटिया

जय प्रकाश भाटिया

जय प्रकाश भाटिया जन्म दिन --१४/२/१९४९, टेक्सटाइल इंजीनियर , प्राइवेट कम्पनी में जनरल मेनेजर मो. 9855022670, 9855047845

One thought on “यादों का सहारा

  • अखिलेश पाण्डेय

    बहुत बढ़िया आपकी इस कबिता को पढ़ कर मन प्रसन्न हो उठा , आप ने अपनी इस कबिता से ये सिद्ध कर दिया की दिल एक ऐसा मंदिर है जहा हर खुशिया आ सकती है

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