सेक्युलरवाद (लघुकथा)
वकालत की पढ़ाई पूरी करके हाईकोर्ट में प्रैक्टिस करते हुए विशाल को दो वर्ष हो चुके थे । एक दिन समाचार (न्यूज) देखते हुए वह व्याकुलता से बोल पड़ा – “समझ नहीं आता, ये नेता क्यों हिन्दुस्तान को हिन्दुओं का देश बताने पर क्यों तुले हुए हैं ? जबकि संविधान में भारत को धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र बताया गया है ।” एक बार पिताजी की ओर देखकर विशाल फिर बोला – “देश में जितने हिन्दू हैं, उनकी देखभाल तो सरकार ठीक से करती नहीं है, बिना वजह एक ही समुदाय की बात करते हैं ये लोग ।”
विशाल के पीछे कुर्सी पर बैठे सात्विक से रहा न गया । वह बोला – “एक ही समुदाय की बात तो आप जैसे सेक्युलरवादी भी करते हैं । क्या हिन्दू-विरोधी होना ही सेक्युलरवाद है ? क्या उचित है ऐसा सेक्युलरवाद ?”
अपने जमाने की आठवीं पास पिताजी चुपचाप ही बैठे रहे ।
. . . . . . . . राम दीक्षित ‘आभास’