आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 41)
तीन अधिकारियों का स्थानांतरण
उस कार्यालय में तीन-चार अधिकारी ऐसे थे, जो मेरी बहुत इज्जत करते थे और मुझे सभी कार्यों में समर्थन देते थे। शायद इसी कारण बांगिया जी उनसे चिढ़ते थे तथा उनका स्थानांतरण कराने की कोशिश करते थे। अन्ततः उनकी कोशिशें रंग लायीं और उनमें से तीन के स्थानांतरण का आदेश आ गया। एक श्री कनिष्क बाजपेयी अपने इलाहाबाद मंडल में भेजे गये थे और शेष दोनों श्री विक्रम सिंह और श्री महेश्वर सिंघा प्रोजैक्ट आॅफिस, मुम्बई में लगाये गये थे, जहाँ गौड़ साहब पहले से थे। इन तीनों से मेरी बहुत घनिष्टता थी और मैं एक बार श्री महेश्वर सिंघा के विवाह में शामिल होने मेरठ भी गया था। इन अधिकारियों के स्थानांतरण से मुझे बहुत धक्का लगा, क्योंकि वे सदा मेरा समर्थन करते थे और मैं भी उनको बांगिया जी के कोप से बचाने का प्रयत्न करता था।
वैसे उस कार्यालय में एक मुख्य प्रबंधक और थे- श्री आर.एन. कक्कड़। वे फैकल्टी के रूप में संस्थान में आये थे और दो-तीन वर्ष में ही रिटायर होने वाले थे। वे प्रोमोटी थे अर्थात् पहले बाबू रह चुके थे और फिर अधिकारी बने थे। ऐसे लोगों के बारे में माना जाता है (और प्रायः यह सत्य भी है) कि उनकी मानसिकता हमेशा बाबुओं जैसी रहती है। इसलिए वे कोई जिम्मेदारी का काम नहीं लेना चाहते थे और पढ़ाने में भी बेकार थे। अनेक प्रशिक्षणार्थी मुझसे आकर कहते थे कि इनको फैकल्टी किसने बना दिया है? कक्कड़ साहब बांगिया जी को कोई भाव नहीं देते थे, इसलिए बांगिया जी उनसे और भी अधिक असंतुष्ट रहते थे। बांगिया जी व्यंग्य में उनको ‘साँड़ जी’ कहते थे, परन्तु उनका कुछ बिगाड़ नहीं पाते थे। वैसे मेरे साथ कक्कड़ साहब का व्यवहार अच्छा और मित्रतापूर्ण था। लेकिन बांगिया जी के सहायक महाप्रबंधक बनने के बाद शीघ्र ही कक्कड़ साहब का स्थानांतरण सेवा शाखा कलकत्ता में हो गया, जबकि वे लखनऊ में स्थानांतरण कराना चाहते थे, क्योंकि वहीं उनकी कोठी भी बनी हुई है।
नयी फैकल्टी
सन् 2008 में श्री कक्कड़ के जाने के कुछ समय बाद तीन वरिष्ठ प्रबंधक फैकल्टी के रूप में हमारे संस्थान में भेजे गये। प्रधान कार्यालय ने यह तय किया था कि हमारे संस्थान का प्रयोग अब कम्प्यूटर के प्रशिक्षण के लिए कम और सामान्य विषयों के प्रशिक्षण के लिए अधिक किया जाएगा। इसीलिए वे तीनों अधिकारी भेजे गये थे। उनके तीनों के नाम थे- सर्वश्री सुनील कुमार झा, अमित जोशी और राजेश मूँदड़ा। जैसा कि नाम से स्पष्ट है, ये क्रमशः बिहार, उत्तराखंड और राजस्थान के रहने वाले हैं। हालाँकि वे तीनों प्रोमोटी नहीं हैं अर्थात् सीधे अधिकारी बने थे, लेकिन उनकी मानसिकता भी कक्कड़ साहब जैसी थी और अपनी मानसिकता के अनुसार वे भी कोई जिम्मेदारी नहीं लेना चाहते थे। उदाहरण के लिए, हमने सोचा कि हिसाब-किताब का काम इनको दे दिया जाये, परन्तु उन्होंने लेने से साफ इंकार कर दिया। हालांकि वे सुविधायें लपकने में सबसे आगे रहते थे। सबने अपने लिए अलग-अलग कमरा, कम्प्यूटर, प्रिंटर और स्कैनर तक ले रखा था। लेकिन वे पढ़ाने के अलावा कोई कार्य नहीं करना चाहते थे। इसलिए बांगिया जी शुरू से ही उनसे असंतुष्ट रहे और बातचीत में प्रायः कहा करते थे कि एक कक्कड़ गया और ये तीन कक्कड़ आ गये।
वैसे ये तीनों वरिष्ठ प्रबंधक मेरे साथ बहुत मित्रतापूर्ण थे। विशेष रूप से श्री राजेश मूँदड़ा मेरे बहुत निकट थे। बाद में झा साहब का प्रोमोशन हो गया, तो वे चले गये और श्री जोशी मेरे साथ योग किया करते थे।
दीपांक की विविध गतिविधियाँ
मैं लिख चुका हूँ कि दीपांक को प्रवेश हमने जिस चितकारा इंजीनियरिंग संस्थान में कराया था, वहाँ के छात्रों को बहुत कुछ सिखाया जाता है और कई प्रकार की गतिविधियों में व्यस्त रखा जाता है। दीपांक भी इसका अपवाद नहीं था। एक बार अपने कालेज के वार्षिक समारोह में उसने फास्ट फूड का स्टाल लगाया था अपने तीन-चार साथियों के साथ मिलकर। खाना बनाने के लिए मैंने अपनी कैंटीन के प्रबंधक से बात करके दो-तीन लोगों की व्यवस्था कर दी थी। स्टाल काफी सफल रहा, परन्तु एक दिन दिनभर बारिश होती रही, जिससे बिक्री पर बुरा असर पड़ा। अन्त में जब हिसाब लगाया गया, तो दीपांक और उसकी टीम को 4 हजार रुपये का घाटा पड़ा। उसमें से आधा घाटा कैंटीन वाले ने उठाया और आधा हमने। हालांकि यह काम घाटे वाला रहा, लेकिन दीपांक को अच्छा अनुभव हो गया।
अगले साल के वार्षिक समारोह में दीपांक ने एक क्विज ईवेंट ‘प्रज्ञान’ आयोजित की थी, जिसमें कई टीमें बाहर से भी आयी थीं। यह ईवेंट काफी सफल रही। दीपांक इसका को-आॅर्डिनेटर था। इससे अगले साल फिर ‘प्रज्ञान-2’ आयोजित की गयी, जो अधिक बड़ी और विस्तृत थी। दीपांक इसका भी को-आॅर्डिनेटर था। उसने काफी भागदौड़ की, आयोजकों की व्यवस्था की और इंटरनेट पर इसके लिए एक अच्छी खासी वेबसाइट भी बना डाली। लेकिन ईवेंट होने से पहले ही वह एक ट्रेनिंग करने चला गया था, इसलिए उसके साथियों ने इसे सँभाला। यह भी काफी सफल रही।
दीपांक ने एक बार अपने एक वरिष्ठ छात्र की कम्पनी में भी साॅफ्टवेयर तैयार करने का काम किया था और उनसे काफी कुछ सीखा भी था। हालांकि इससे उसे कोई आर्थिक लाभ नहीं हुआ, लेकिन अनुभव अच्छा हो गया, जो आगे चलकर उसके बहुत काम आया।
दीपांक ने एक बार संगीत सीखने की कोशिश की। वह गिटार सीखने जाता था। उसने अपने तीन-चार दोस्तों के साथ मिलकर एक संगीत मंडली भी बना ली थी, जिसका नाम रखा था- ‘कूल हीटर्स’। उनके अनुरोध पर मैंने उनके लिए एक पाॅप गीत लिख डाला था, जो उन्हें काफी पसन्द आया और उसे संगीतबद्ध भी किया। दीपांक उसे गाता था। उस गीत की पहली लाइन नीचे दे रहा हूँ, शायद आपको भी अच्छी लगे। बाकी लाइनें मैं भूल गया हूँ और दीपांक से भी यह गीत खो गया है। यह मेरे द्वारा लिखा गया पहला और अभी तक अन्तिम पाॅप गीत है-
दिल ने पुकारा, तुमको पुकारा, ओ मेरी महबूबा।
मेरा दीपांक से यह कहना था कि इन गतिविधियों के कारण पढ़ाई में किसी भी तरह की बाधा या लापरवाही नहीं होनी चाहिए। वह भी इसका ध्यान रखता था। वह हालांकि अधिक अच्छे नम्बर नहीं ला पाता था, लेकिन आराम से पास हो जाता था। कभी-कभी उसकी उपस्थिति कम हो जाती थीं, तो कालेज से हमारे पास पत्र आ जाता था। इसलिए मैं उसे लगातार कक्षाओं में जाने को कह देता था। इससे किसी तरह उसकी उपस्थिति पर्याप्त हो जाती थीं।
विजय भाई , आज की किश्त भी अच्छी लगी , बांगिया जैसे लोगों को हम मिज़रेबल बोलते हैं जो हमेशा ही पंजाबी में सड़े भुज्जे रहते हैं . दीपांक के बारे में पड़ कर अच्छा लगा ,आप बहुत भागयशाली हैं . मेरे बेटे को भी इसी हफ्ते प्रोमोशन मिली है ,वोह ऐम्प्लोएमैन्त ऑफिस में काम करता है .
प्रणाम, भाई साहब ! आपके सुपुत्र को प्रोमोशन की हार्दिक बधाई !
मुझे बैंक में बांगिया जी जैसे लोग और भी मिले हैं, हालाँकि उनमें से किसी ने मेरे साथ ऐसा व्यवहार नहीं किया.
दीपांक की सफलता आप जैसे बड़ों के आशीर्वाद का ही फल है.
आज की किस्त की सभी घटनाएं अच्छी लगी। धन्यवाद।
हार्दिक धन्यवाद, मान्यवर !
आपके द्वारा लिखे पॉप गीत हम पूरा पढ़ पाते क्या ?
बहिन जी, यह पॉप गीत अब मिल गया है। पर लखनऊ में डायरी में लिखा रखा है। अगले महीने लखनऊ जाने पर लेता आऊँगा, तब इसे प्रस्तुत करूँगा।