कविता

प्याज़ के आँसू

इस प्याज ने देखो
क्या आंतक मचाया है
बिन खाये ही मेरे आंखो में
आज पानी लाया है
हरी सब्जियों के भाव से
अब तक सहमें ही थे
रहा सहा इस प्याज ने भी
हमें रुलाया है
एक समय था जब ये
खाने की जान थी
खाना खाते वक्त
भोजन का अभिमान थी
आज इसपर भी देखो
क्या कहर ढाया है
इस मुई मंहगाई की
पङी इसपर छाया है
हम मध्यम वर्गीय तो
हमेशा तरस जाते है
प्याज को रोजाना
घी की तरह खाते है
घर पर मेहमान
आज भी कोई जब आता है
सहम से जाते है जब भी
खाने में प्याज मंगाता है
कही कही तो फसले
बरबाद होती है बदत्तर
कही हो जाता है इंसान
खाने को निरुत्तर
बचाये कैसे कुछ बताओ
जो भी कमाते है
प्याज खाने की लत में
कमाते जो गवांते है
आज तक समझ नही पाये
हम अपने देश का भूगोल
कब कहां कैसे हो जाता है
ये मंहगाई का झोल
फसलेँ होते हुऐ भी
क्यूं हालात ने रुलाया है
मुझे यह तथ्य आजतक
समझ नही आया है

— एकता सारदा

*एकता सारदा

नाम - एकता सारदा पता - सूरत (गुजरात) सम्प्रति - स्वतंत्र लेखन प्रकाशित पुस्तकें - अपनी-अपनी धरती , अपना-अपना आसमान , अपने-अपने सपने [email protected]

6 thoughts on “प्याज़ के आँसू

  • वैभव दुबे "विशेष"

    वाह एकता जी महंगाई पर
    अच्छा कटाक्ष किया है।

    सुंदर कविता

    • एकता सारदा

      शुक्रिया

    • एकता सारदा

      शुक्रिया

  • सतीश बंसल

    वाह.. सामयिक कविता

    • एकता सारदा

      आभार

    • एकता सारदा

      आभार

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी सामयिक रचना।

    • एकता सारदा

      आभार आदरणीय

    • एकता सारदा

      आभार आदरणीय

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