प्याज़ के आँसू
इस प्याज ने देखो
क्या आंतक मचाया है
बिन खाये ही मेरे आंखो में
आज पानी लाया है
हरी सब्जियों के भाव से
अब तक सहमें ही थे
रहा सहा इस प्याज ने भी
हमें रुलाया है
एक समय था जब ये
खाने की जान थी
खाना खाते वक्त
भोजन का अभिमान थी
आज इसपर भी देखो
क्या कहर ढाया है
इस मुई मंहगाई की
पङी इसपर छाया है
हम मध्यम वर्गीय तो
हमेशा तरस जाते है
प्याज को रोजाना
घी की तरह खाते है
घर पर मेहमान
आज भी कोई जब आता है
सहम से जाते है जब भी
खाने में प्याज मंगाता है
कही कही तो फसले
बरबाद होती है बदत्तर
कही हो जाता है इंसान
खाने को निरुत्तर
बचाये कैसे कुछ बताओ
जो भी कमाते है
प्याज खाने की लत में
कमाते जो गवांते है
आज तक समझ नही पाये
हम अपने देश का भूगोल
कब कहां कैसे हो जाता है
ये मंहगाई का झोल
फसलेँ होते हुऐ भी
क्यूं हालात ने रुलाया है
मुझे यह तथ्य आजतक
समझ नही आया है
— एकता सारदा
वाह एकता जी महंगाई पर
अच्छा कटाक्ष किया है।
सुंदर कविता
शुक्रिया
शुक्रिया
वाह.. सामयिक कविता
आभार
आभार
अच्छी सामयिक रचना।
आभार आदरणीय
आभार आदरणीय