कविता

आ गए

खेले थे जहाँ यारों के संग वो ठिकाने आ गए
पीपल की उस छाँव में वक़्त बिताने आ गए

देखी जब कागज की कश्ती बूंदों से लड़ती हुई
याद बचपन के वही हमें गुजरे जमाने आ गए

एक मुद्दत गुजर गई मायूस चेहरा सम्हाले हुए
लौट कर कच्ची गलियों में मुस्कुराने आ गए

वो भी क्या थे हसीन लम्हे बेफिक्री से जीने के
बोझ अब दिल में लिए हम गुनगुनाने आ गए

इसरार से इंकार न जब सह सका मासूम दिल
माँ के पहलू में सिमट खुद को छुपाने आ गए

गीली माटी से बनाया एक महल जो ढह गया
उस नदी के ही किनारे आशियाँ बनाने आ गए

था मजा गुल्ली-डंडे, गुड्डे गुड़ियों के खेल में
मोबाईल आया अपने ही घर में बेगाने आ गए

एक रोज बचपन ने तोड़ी जब सरहद की दीवार
मजहब के नाम कुछ लोग मातम मनाने आ गए

कांपती देखी गरीबी जब मदीना वाली राह में
छोड़ इबादत खुदा की हम चादर चढ़ाने आ गए

रात जब ख्वाब में बचपन की दुआ क़ुबूल हुई
अश्क बन के फूल दिले-गुलशन सजाने आ गए

वैभव”विशेष”

वैभव दुबे "विशेष"

मैं वैभव दुबे 'विशेष' कवितायेँ व कहानी लिखता हूँ मैं बी.एच.ई.एल. झाँसी में कार्यरत हूँ मैं झाँसी, बबीना में अनेक संगोष्ठी व सम्मेलन में अपना काव्य पाठ करता रहता हूँ।

3 thoughts on “आ गए

  • शशि शर्मा 'ख़ुशी'

    बेहतरीन रचना |

    • वैभव दुबे "विशेष"

      शुक्रिया

    • वैभव दुबे "विशेष"

      आभार ख़ुशी जी

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