आ गए
खेले थे जहाँ यारों के संग वो ठिकाने आ गए
पीपल की उस छाँव में वक़्त बिताने आ गए
देखी जब कागज की कश्ती बूंदों से लड़ती हुई
याद बचपन के वही हमें गुजरे जमाने आ गए
एक मुद्दत गुजर गई मायूस चेहरा सम्हाले हुए
लौट कर कच्ची गलियों में मुस्कुराने आ गए
वो भी क्या थे हसीन लम्हे बेफिक्री से जीने के
बोझ अब दिल में लिए हम गुनगुनाने आ गए
इसरार से इंकार न जब सह सका मासूम दिल
माँ के पहलू में सिमट खुद को छुपाने आ गए
गीली माटी से बनाया एक महल जो ढह गया
उस नदी के ही किनारे आशियाँ बनाने आ गए
था मजा गुल्ली-डंडे, गुड्डे गुड़ियों के खेल में
मोबाईल आया अपने ही घर में बेगाने आ गए
एक रोज बचपन ने तोड़ी जब सरहद की दीवार
मजहब के नाम कुछ लोग मातम मनाने आ गए
कांपती देखी गरीबी जब मदीना वाली राह में
छोड़ इबादत खुदा की हम चादर चढ़ाने आ गए
रात जब ख्वाब में बचपन की दुआ क़ुबूल हुई
अश्क बन के फूल दिले-गुलशन सजाने आ गए
वैभव”विशेष”
बेहतरीन रचना |
शुक्रिया
आभार ख़ुशी जी