आत्मकथा

आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 44)

कुल्लू-मनाली भ्रमण (जारी)

फिर हम मणिकर्ण की ओर चले। यह पार्वती नदी के किनारे है। पार्वती नदी नीचे आकर व्यास नदी में मिल जाती है। रास्ता बहुत सँकरा और खतरनाक भी है। बीच-बीच में कई अच्छे अर्थात् विकसित गाँव तथा कस्बे भी मिले। शाम को 5-6 बजे हम मणिकर्ण पहुँच गये। वहाँ एक बड़ा गुरुद्वारा है। उसमें छोटे-बड़े सैकड़ों कमरे हैं, जिनमें एक साथ हजारों लोग ठहर सकते हैं। दिन रात लंगर चलता रहता है। हमें थोड़ी देर में ही एक कमरा मिल गया, जिसमें हम 12 लोग आराम से सो सकते थे। लेकिन वहाँ बाथरूम की सुविधा अच्छी नहीं है। बहुत बदबू भी थी। खैर हमने सोचा कि हमें एक रात ही रुकना है, इसलिए काम चल जाएगा।

मणिकर्ण में गर्म पानी की धारा है, जिसे एक कुंड में एकत्र किया गया है। ऐसा कुंड एक तो गुरुद्वारे के भीतर ही है और एक बाहर है। पानी उबलता हुआ होता है, परन्तु उसमें पार्वती नदी का बहुत ठंडा पानी मिलाकर नहाने लायक जल की व्यवस्था की गयी है। लेकिन हमारा विचार उनमें नहाने का नहीं था, इसलिए केवल बाहर से देख लिया। एक बार हमारे पुराने ड्राइवर रवीन्द्र ने जिक्र किया था कि पहाड़ों पर बहुत दूर गर्म पानी की धारा है और वहाँ एक गुरुद्वारा भी है। परन्तु उसे उसका नाम ठीक से याद नहीं था, क्योंकि जब वह गया था, तो बहुत छोटा था। मणिकर्ण आकर हमें याद आया कि रवीन्द्र इसी का जिक्र कर रहा होगा।

गुरुद्वारे के भीतर ही एक गर्म गुफा है, जिसमें बैठने पर पूरे शरीर का अग्निस्नान हो जाता है। बहुत पसीना आता है, परन्तु वह स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक है। कई लोग वहाँ देर से बैठे हुए मिले। मैं भी उसमें काफी देर तक बैठा। फिर हम बाहर घूमने निकले।

गुरुद्वारे से दूसरी तरफ बाहर आते ही हमने एक कुंड देखा, जिसमें उबलता हुआ पानी भरा हुआ था। उसमें चावल-दाल भी पकाये जा सकते हैं। हमने एक पोटली में चावल भरकर रखे भी, परन्तु उनको पकने में कम से कम 20-25 मिनट लगते हैं। इतना समय हमारे पास नहीं था, इसलिए पोटली को वहीं छोड़कर चले गये।

वहाँ से छोटे-छोटे एक-दो मंदिर देखे। फिर रामचन्द्र जी के मंदिर पर आये, जो यहाँ का सबसे बड़ा मंदिर है। वहाँ ठहरने के लिए कमरे भी मिलते हैं और लंगर की व्यवस्था भी है। हमने सोचा कि अगर यहाँ कमरा मिल जाये, तो बहुत अच्छा रहेगा। पूछने पर बताया गया कि एक बड़ा कमरा हालांकि खाली है, परन्तु एक स्कूल की पार्टी के लिए बुक है, जो अभी आये नहीं हैं। रात के 8 बज रहे थे, हमने उनसे कहा कि अब तो वे आयेंगे नहीं, इसलिए हमें ही दे दीजिए। अगर वे आ गये तो हम खाली कर देंगे। काफी कहने के बाद वे मान गये और हम अपना सामान लेकर उसी बड़े कमरे में आ गये। वह वास्तव में अच्छा था। वहाँ बाथरूम भी साफ सुथरा था।

हमने गुरुद्वारे का कमरा नहीं छोड़ा, क्योंकि क्या पता जरूरत पड़ जाये। वहाँ ताला लगाकर चले आये। रात को लगभग 9 बजे हमने रामचन्द्र जी के मंदिर में ही लंगर में भोजन किया। फिर दुकानों पर कुछ खरीदारी करने के बाद सो गये।

प्रातः शौच आदि से निवृत्त होकर हम नहाने गये। उस मंदिर में भी नहाने के लिए गर्म पानी के दो कुंड हैं- एक पुरुषों के लिए और एक महिलाओं के लिए। पानी काफी गर्म है। उसमें कूदकर नहाना बड़ी हिम्मत का काम है। पहले हम किनारे पर बैठकर लोटे से पानी डाल रहे थे। फिर मैंने पहले पैर के पंजे पानी में डाले, थोड़ी देर बाद घुटने तक पैर पानी में डाल लिये। इसके थोड़ी देर बाद मैं पूरा पानी में घुस गया। पानी जाँघों से थोड़ा ऊपर तक आ रहा था। पहले काफी गर्म लगा, लेकिन एक मिनट में ही सहन करने लायक हो गया। फिर मैंने उसमें दो-तीन गोते भी लगाये। बहुत आनन्द आया। मैं करीब 15 मिनट तक उसमें नहाता रहा। फिर बाहर आ गया।

हमने सुना था कि इस पानी में गंधक घुला होता है, जिससे नहाने पर हर तरह का दर्द खत्म हो जाता है। इसे मैं यों ही उड़ाई हुई बात ही समझता था, परन्तु आश्चर्य है कि वहाँ से आने के एक सप्ताह बाद मेरे घुटनों का दर्द बिल्कुल समाप्त हो गया, जो कानपुर में चोट लग जाने के कारण और फिर पंचकूला में बैडमिंटन खेलते समय झटका लग जाने के कारण हो गया था और पूरी तरह ठीक नहीं हुआ था। स्नान के बाद हमने गुरुद्वारे के लंगर में भोजन किया और तुरन्त चलने के लिए तैयार हो गये, क्योंकि हमें उसी दिन वापस पंचकूला पहुँचना था।

रास्ते में मंडी होते हुए हम चंडीगढ़ की ओर चले। मंडी में हमने कुछ फल भी खरीदे, जो वहाँ ताजे और अच्छे मिलते हैं। कीमतें भी चंडीगढ़-पंचकूला की तुलना में ठीक हैं। शाम तक हम चंडीगढ़ पहुँच गये, परन्तु टैक्सी वाले सरदार जी शहर से थोड़ा पहले ही एक रिसाॅर्ट में रुके और अपनी गाड़ी धोई। तब तक हम इंतजार करते रहे और जलपान किया। लगभग रात को 8 बजे हम पंचकूला अपने घर पहुँच गये। इस प्रकार हमारी यह यात्रा सकुशल सम्पन्न हुई। इसमें कुल 5 दिन लगे।

शालू सेठ का आगमन

श्रीमती शालू सेठ के बारे में मैं पीछे विस्तार से लिख चुका हूँ। वह कई साल तक मेरे साथ कानपुर मंडलीय कार्यालय में रही है। जून या जुलाई 2009 में उसने अपना स्थानांतरण पंचकूला में मेरे ही संस्थान में करा लिया। वास्तव में उसके पति श्री राजीव सेठ उस समय मोहाली में किसी कम्पनी में वेबसाइट डिजायनर या डिवलपर के रूप में सेवा कर रहे थे। लगभग 6 माह तक अकेले रहने के बाद जब वे स्थायी रूप से चंडीगढ़ या पंचकूला में रहने को तैयार हो गये, तो उन्होंने प्रयास करके शालू का स्थानांतरण पंचकूला करा लिया। शालू के आने पर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। वह एक बहुत मेहनती और योग्य अधिकारी है। उसका व्यवहार सबके प्रति बहुत मित्रतापूर्ण रहता है, इसलिए सब उसे पसन्द और प्यार करते हैं। उसे पंचकूला के सेक्टर 15 में ही किराये पर एक अच्छा मकान मिल गया और वह वहाँ रहने लगी। प्रारम्भ में उसकी गृहस्थी जमाने में हमने भी कुछ सहायता की।

योग शिविर में हरिद्वार

मैं लिख चुका हूँ कि मैं अपने संस्थान में आने वाले प्रशिक्षणार्थियों को नियमित योग कराया करता था। इसके साथ ही मैं स्वामी रामदेव के पतंजलि योग का अभ्यास करने वाले सज्जनों के सम्पर्क में भी था। एक बार पंचकूला में डी.ए.वी. इंटर कालेज में उनका 10 दिवसीय प्रशिक्षण हुआ था। मैं और श्री अनिल नेमा इसमें रु. 1100 शुल्क देकर शामिल हुए थे, हालांकि शुल्क देना अनिवार्य नहीं था। इसके कुछ माह बाद जुलाई 2009 में हमें हरिद्वार में स्वामीजी के सान्निध्य में शिविर में जाने का अवसर मिला। मैंने इस अवसर का पूरा लाभ उठाना तय किया। हमारे सेक्टर से 4-5 लोग इस शिविर में जा रहे थे, जो मेरे परिचित थे। अतः उनके साथ मैं भी चल दिया। हम रोडवेज की बस से चले और लगभग 4 घंटे में शिविर स्थल के ठीक बाहर सड़क पर उतर गये।

शिविर बहुत आनन्ददायक था। हम 5 लोगों को एक ही कमरा मिला था, जिसमें हम आराम से सो सकते थे। उसमें जुड़ा हुआ बाथरूम भी था। कमरे का किराया कुछ नहीं था। भोजन भी तीनों बार कैंटीन में समय से मिलता था, जो हालांकि साधारण होता था, लेकिन बहुत सात्विक भी था। हम दिन में दो बार सुबह और शाम योग करने के लिए निर्धारित स्थान पर जाते थे और बीच में बैठकों के लिए भी जाते थे। स्वामी जी स्वयं हमें योग कराते थे। वास्तव में वे प्रत्येक प्रान्त के लोगों के साथ एक-एक सप्ताह का शिविर कर रहे थे। हम पंजाब-चंडीगढ़ प्रान्त के साथ आये थे। हमारे पंचकूला के 2 साथी श्री एस.पी. गुप्ता और श्री नन्द किशोर एक दिन बाद ही वापस चले गये और कमरे में हम केवल 3 लोग रह गये थे। एक मैं, दूसरे श्री सुखदेव कपूर और तीसरे श्री रमेश छाबड़िया। पहले दिन शाम को समय निकालकर हम हरिद्वार भी गये और वहाँ हर की पैड़ी में गंगाजी में स्नान करके अपने पाप धोये।

दो दिन बाद ही सावन का महीना शुरू हो गया था। इस महीने में लोग काँवरों में हरिद्वार से गंगाजल भरकर लाते हैं और अपने क्षेत्र के किसी बड़े शिव मंदिर पर उससे अभिषेक करते हैं। हमारा शिविर स्थल हरिद्वार से रुड़की जाने वाली मुख्य सड़क के किनारे था। हम रोज देखते थे कि उस सड़क से अनगिनत लोग काँवरें लेकर जा रहे थे। दिन-रात काँवरियों का अटूट ताँता। यह दृश्य हमारे लिए अकल्पनीय था। हमें बिल्कुल अनुमान नहीं था कि इतनी भीड़ होती होगी। सावन के महीने में वह सड़क सामान्य वाहनों के लिए एकदम बन्द कर दी जाती है, केवल काँवरियों के वाहन जा सकते हैं।

अब हम घबड़ाये कि लौटेंगे कैसे। परन्तु शिविर के व्यवस्थापकों ने लौटने के लिए बसों को बुक कर दिया। लौटने वाले दिन हमने भी चंडीगढ़ जाने वाली बस में टिकट बुक करा ली थी। शिविर की समाप्ति से एक दिन पहले स्वामी रामदेव जी के साथ हमारा सामूहिक चित्र लिया गया, जो अभी भी मेरे पास सुरक्षित रखा है। मैं स्वामी जी से व्यक्तिगत बात करना चाहता था, परन्तु उसका मौका नहीं मिला। वैसे मैं स्वामी जी के मुख्य आश्रम में भी गया था और वहाँ एक वैद्य से अपने कानों के इलाज के लिए दवायें लिखवा लाया था। वे दवायें मैंने कई महीने खायीं और बतायी गयी सारी क्रियायें भी कीं, परन्तु कोई लाभ न होना था, न हुआ।

जिस दिन हमें लौटना था, उस दिन जल्दी ही जलपान आदि करके हम तैयार हो गये और अपना सामान लेकर सड़क तक पहुँचे। लेकिन वहाँ हमें बताया गया कि बस वहाँ से हरिद्वार की ओर करीब एक किमी दूर एक मोड़ से मिलेंगी। हम किसी तरह वहाँ पहुँचे। दो घंटे बाद बसें आयीं। वे बसें जाने किन-किन गाँवों से होती हुई पहले हरिद्वार, फिर देहरादून से होकर नाहन, जगाधरी, यमुनानगर के रास्ते से अम्बाला पहुँची। वहाँ लगभग आधा घंटे रुकने के बाद बस चंडीगढ़ की ओर चली और हम जीरकपुर पर उतरे। वहाँ दीपांक कार लेकर हमें लेने आ गया। इस प्रकार हम करीब 9 बजे अपने घर पर पहुँच सके अर्थात् अपने कमरे से निकलने के पूरे 12 घंटे बाद, जबकि सीधा रास्ता मुश्किल से 4 घंटे का है।

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

6 thoughts on “आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 44)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , आप ने तो हमें भी सैर करा दी ,जो बहुत अच्छी लगी , हमारे भी कुछ रिश्तेदार मणिकर्ण गए थे और उन्होंने चावलों के बारे में बताया था . एक बात हर दफा पूछनी भूल जाता हूँ कि कानों की प्राब्लम होने से आप कैसे कोप करते हैं ,अगर सामने कोई आप से बात कर रहा हो तो कैसे आप समझ लेते हैं ,यह किऊरीऔस्ती बहुत देर से है .

    • विजय कुमार सिंघल

      नमस्ते भाईसाहब!
      भाई साहब, कानों की समस्या के कारण मुझे कठिनाई तो होती है पर जब साथ में कोई जान पहचान वाला होता है तो कोई कष्ट नहीं होता। जब मैं बिल्कुल अकेला होता हूँ तब थोडी परेशानी होती है। ऐसी स्थिति में मैं उनसे कह देता हूँ कि अपनी बात लिखकर बतायें। कभी कभी मैं होठों के हिलने से भी सामने वाले की बात समझ जाता हूँ। अपनी पत्नी की सारी बातें बिना लिखे ही समझ लेता हूँ। हालाँकि कई बार गलत भी समझ जाता हूँ।

      • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

        विजय भाई , धन्यवाद , यही कठिनाई मुझ को भी होती है ,बहुत दफा जब बोलने की कोशिश करता हूँ तो सामने वाला कुछ और समझ लेता है और उस के हिसाब से ही जवाब देता है और इस से मुझे बहुत दुख और गुस्सा होता है . शुरू से ही मैंने स्पीच की ऐक्सर्साइज़्ज़ नहीं छोड़ी लेकिन यह कंडीशन ही ऐसी है कि मस्सल बहुत कमज़ोर हैं ,इसी लिए सही बोल नहीं पाता हूँ . हर सुबह लोम विलोम आदिक सब करता हूँ ,शाएद इसी लिए कुछ कुछ बोल लेता हूँ वर्ना कब की स्पीच ख़तम हो जाती .

        • विजय कुमार सिंघल

          भाई साहब, आपको 5 मिनट रोज भस्त्रिका प्राणायाम भी करना चाहिए. इससे आपकी वाणी में जरूर सुधार होगा. इसका तरीका ईमेल से भेज रहा हूँ.

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    चंडीगढ़ शिमला आँखों देखा था
    कुल्लू आपका लेखन दिखा दिया
    धन्यवाद भाई विस्तार से भ्रमण लेख लिखने के लिए
    सावन सोमवारी को बिहार झारखण्ड में भी काँवरियों की भीड़ जमा होती है मानो गेंदा की आंधी चली हो

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार बहिन जी. काँवरिये हमारे गाँव से भी जाया करते हैं पर वे दो चार ही होते हैं। लेकिन हरिद्वार की भीड़ की कल्पना नहीं की जा सकती।

Comments are closed.