आओ मेरे कान्हा आओ,
आओ मेरे कान्हा आओ,
आपने ही तो गीता में उपदेश दिया है…
आत्मा अजर है, अमर है
आत्मा कभी नहीं मरती,
मरता है तो यह नश्वर शरीर-
पंच तत्व में हो जाता है विलीन
पर आत्मा अजर है, अमर है
आत्मा कभी नहीं मरती, ..
अपने परमात्मा में हो जाती है लीन,
हे मेरे प्रभु यह तो आपके युग की बाते हैं..
पर आज का इंसान–
लगता है जीते जी मर चुकी है.इसकी आत्मा ..
यह भूल गया है की सर्वोपरि है परमात्मा,
अपने तन के लिए, अपने मन के लिए,
क्या कुछ नहीं करता यह इंसान
खाता है, पीता है, सजता है, संवरता है,
अपने तन मन की हर इच्छा पूरी करता है ,
पर क्या कभी अपनी आत्मा की सुनता है…?
न इसमें सवेंदना है, न प्रेरणा,
न करुणा ,है न दया, न परोपकार,
अपने तक ही सीमित है उसका हर विचार,
न किसी से सच्चा प्रेम न बड़ों का सत्कार-
हर काम उसके लिए जैसे केवल एक व्यापार ,
आओ मेरे कान्हा आओ,
गीता का उपदेश फिर सुना जाओ
यदा यदा हि धर्मस्य का डंका फिर बजा दो और
इन्सान की सोयी हुई आत्मा को फिर जगा दो. —जय प्रकाश भाटिया